Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ (१४८) E भाष्यका स्वोपज्ञताका विचार.. ... (१) भाष्यकार महाराज खुदही इस सूत्र का स्वकृतपना दिखाते हैं, देखिये संबंधकारिका ३१ ‘नते च मोक्षमार्गाद् हितोपदेशोऽस्ति जगति कृत्स्नेऽस्मिन् । तस्मात् परमिदमेवेति मोक्षमार्ग प्रवक्ष्यामि ॥३१।।' अकलमंद आदमी सोच सकते हैं कि यदि सूत्रकार और भाष्यकार एकही नहीं होते तो प्रवक्ष्यामि । ऐसा अस्मत्शन्दकी साथ होनेवाला क्रियापद नहीं कहते. .. (२) सारे भाष्यको देखनेवाला मनुष्य अच्छीतरहसे देख सक्ता है कि भाष्यमें एकभी जगह पर सूत्रकारके लिये बहुमानका एक वचनभी नहीं आया है. यदि सूत्रकारमहाराजसे भाष्यकार अलग होते तो कभी भी सूत्रकारके बहुमानकी पंक्तियां या विशेषण कहे बिना नहीं रहते। (३) भाष्यकारने किसीभी स्थानमें अवतरणके अधि. कार आदि सूत्रकारसे भिन्नपना नहीं दिखाया है. या वैकल्पिकपनभी नहीं दिखाया है... (४) भाष्यकारने किसीभी स्थानमें सूत्रका दुरुक्तपन या सूक्तपनका विचार नहीं किया है. (५) भाष्यकारमहाराजने किसीभी स्थानमें सूत्रकारने ऐसा कहा है सूत्रकार ऐसा कहते हैं ऐसा कथन नहीं किया है. और व्याख्याका विकल्पभी नहीं दिखाया है... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180