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स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम कही है वहां पर 'त्रिंशतः ' ऐसा कहना होगा और नामगोत्रकी स्थिति बीस सागरोपम
कोटि दिखाई है तो वहां पर 'विंशती' ऐसा कहना होगा. इसी तरहसे देवताओं की स्थिति में प्रत्येक देवता और देवलो - क्रकी अलग २ स्थिति होने से पल्योपम और सागरोपममें सभी स्थान में बहुबचन रखना होगा. इन सब सबबों से साफ होता है कि 'अंतर्मुहूर्त्त ' ऐसा ही पाठ होना चाहिये.
( ४६ ) नवमें अध्यायके ३० वें सूत्र में दिगम्बर 'आर्त्तममनोज्ञस्य ०' और ३१ में 'विपरीतं मनोज्ञस्य' ऐसा पाठ मानते हैं. तब श्वताम्बर' आर्त्तममनोज्ञानां०' ऐसा पाठ मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि अनेकतरहके अमनोज्ञ विषय होते हैं और ध्यानका वक्त मुहूर्त्त तकका होनेसे अमनोज्ञविषयोके वियोग में ध्यान होता है. और अनेकविषयों का समूहरूप से भी वियुक्त होने के लिये ध्यान होता है. इससे बहुवचन रखना यही मुनासीब है.
( ४७ ) सूत्र ३३ में दिगम्बर 'निदानं च' ऐसा सूत्र पाठ मानते हैं और श्रुताम्बर निदानं कामोपहतचित्तानां' ऐसा सूत्रपाठ मानते हैं. श्वेताम्बर और दिसम्बर दोनोंही भवान्तरमें भगवानकी सेवाका मिलना, शुभगुरुका योग मिलना, गुरुवचनका श्रवण पाना इत्यादि बातें मिलने की चाहना करते हैं. लेकिन उनको निदान गिनकर आध्यान नहीं गिनते हैं. इससे कौन निदान आर्त्तध्यान गिना जाय ? यह सोचना
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