Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 163
________________ (१५२) ध पृष्ठ- १५४ 'उक्तं भवता हिंसादिभ्यो विरतिव्रतं ' ( हिंसा नृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ७-११) न पृष्ठ १८३ ' उक्तं भवता गुप्त्यादिभिरभ्युपायैः संवरो ___ भवतीति ' (९.२ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षा०) प पृष्ठ २०७ 'उक्तं भवता पूर्वे शुक्ले ध्याने (शुक्ले चाये.९-३९) - परे शुक्ले ध्याने ( परे केवलिनः ९.४०) फ पृष्ठ २०८ । उक्तं भवता परीषहजयात्तपसोऽनुभावतश्च कर्मनिर्जरा भवतीति' (९-३ तपसा निर्जरा च, ८-२२ . विपाकोऽनुभावः, ८.२४ ततश्च निर्जरा) ब पृष्ठ ३ तत्त्वार्थाथिगमाख्यं बह्वर्थ संग्रहं लघुग्रंथम् । वक्ष्यामि शिष्यहितमिममर्हद्वचनैकदेशस्य ॥ २२ ॥ इन वचनोंसे भी साफ होजाता है के भाष्यकारही सूत्रकार है, यदि दोनों एकही नहीं होते तो ' वक्ष्यामि' ऐसा ग्रंथ करनेके विषयमें नहीं कहते.. 'भ पृष्ठ ५ (तं पुरस्ताल्लक्षणतो विधानतश्च विस्तरेणोपदे क्ष्यामः' इस स्थानमेंभी : उपदेच्यामः' ऐसा प्रयोग मोक्षमार्गके लिए तबही होवे के जब मूलकारही भाष्य कार होवे..... म पृष्ठ ७ 'ताँल्लक्षणतो विधानतश्च पुरस्ताद् विस्तरेणोपदे क्ष्यामः । सूत्रकारही भाष्यकार नहीं होते तो इधर 'वक्ष्यन्ति' ऐसा कहते । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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