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चाहिये निर्णय यही होगा कि विषयासक्तिके परिणाम वालेका ही निदान आर्त्तध्यान होगा.
( ४८ ) सूत्र ३६ में दिगम्बर लोग धर्मध्यानके अधिकारीका निर्देश नहीं करते हैं. श्वेताम्बर लोग 'अप्रमत संयतस्थ' ऐसा कहकर धर्मध्यान के अधिकारीका निर्देश करते हैं. ता बरोंका कथन है कि यदि आर्त्त, रौद्र और शुक्लध्यान के अधिकारी भगवान् उमास्वाविजीने दिखाये हैं तो फिर इधर धर्म ध्यान में अधिकारीका निर्देश क्यों नहीं ?
उपर्युक्त विचारोंसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोंके तत्वार्थ सम्बन्धी कौन २ सूत्रमें फर्क है यह बात सोचने में आ गई, ra इस तस्वार्थ सूत्र के ऊपर एक छोटा भाष्य है जिसको श्वेताम्बर लोग मानते हैं, और दिनचर लोग नहीं मानते हैं. उस भाष्यको श्वेताम्बर लोग सिर्फ मानते ही हैं ऐसा नहीं, किन्तु उस भाष्यको श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीने ही बनाया है ऐसा मानते हैं.
भाष्य के कर्त्ता की मीमांसा
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अब सोचने का यह है कि वह भाष्य श्रीमान् उमास्वातिवाचकजीका बनाया हुआ है या नहीं ? यह मान्य स्वर्य श्रीउमास्वातिवाचकजीने ही बनाया है, उस विषय में यद्यपि इसकी वृत्ति बनानेवाले श्रीहरिभद्रसूरिजी और श्रीसिद्ध सेनाचार्यजी तो साफही शब्दों में उस भाष्यको स्वोपज्ञ दिखाते हैं।
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