Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 160
________________ (१४९) (६) भाष्यकारने जहां परभी सूत्रका अवतरण दिया है वहां सूत्रकी साक्षी देने परभी 'उक्तं भवता' आदि सूत्रकार और भाष्यकारका अभेदपना दिखानेवालाही शब्दप्रयोग किया है. देखिये वे ' अत्र भवता' आदि अभेददर्शक स्थानों, जिसके देखने से आप वाचकोंको पूरा निर्णय हो जायगा कि यह भाष्य सूत्रकारमहाराजकाही किया हैक भाष्य ( कलकत्ताकी पुस्तक) पृष्ठ ३९ उक्तं भवता' जीवादीनि तत्त्वानि' याने जीवादि तच्चो आपने दिखाये, सूत्र ४ में जीवादि दिखाये हैं. यदि भाष्यकारमहाराज और सूत्रकारमहाराज अलग होते तो इधर 'उक्तं भवता' ऐसा प्रयोग नहीं होता.. . ख पृष्ठ ४५ में 'उक्तं भवता पंचेंद्रियाणीति' आपने इन्द्रियां पांच हैं ऐसा कहा है . यह सूत्र अ. २ सूत्र १५ · ग पृष्ठ ४५ में ही उक्तं भवता पृथिव्यब्वनस्पतितेजो वायवो द्वीन्द्रियादयश्च नव जीवनिकायाः (अ२ सू.१३-१४) और पंचेन्द्रियाणि ( अ.२ सू १५) चेति, इसको सोचनेसे यह साफ हो जायगा के भाष्य सूत्रकारने ही किया है, और पृथिव्यधनस्पत्यादिका क्रमही स्थावर और त्रसके विषयमें माना है. घ पृष्ठ ४६ 'उक्तं भवता द्विविधा जीवाः समनस्का अमन - स्काश्चेति' (अ. २ सू. ११) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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