Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 109
________________ ( ९८ ) और औपपातिकके स्थान में औपपादिक आदि की माफिक करके पलटा किया है, लेकिन उस बातको व्यंजनभेद करना यह जैनमजहब के हिसाब से बडा दोष होने पर भी गौण करके इधर तो जिधर व्यंजनभेद और अर्थभेद दोनों होवे वैसा ही स्थान दिखाकर समालोचना की जायगी । का १ प्रथम अध्याय में इन लोगोंने 'द्विविधोऽसूत्रपाठीं वधिः,' ऐसा सूत्र नहीं माना, इसी ही कारणसे विपर्यास उन्होंने 'भवप्रत्ययो नारकदेवानां', ऐसे सूत्रके * स्थान में 'भवप्रत्ययोsवधिर्देवनारकाणां', ऐसा माना है. याने पेश्तर अवधि के भेदको दिखानेवाला सूत्र न मानकर इधर अवधिज्ञानका अधिकार न होनेसे अवधिका अधिकार दिखानेको अवधिशब्द दाखिल किया. यद्यपि अवधि के अधिकारको दिखानेका सूत्र न करके इधर अवधि - शब्द कहने से अवधिका अधिकार आजायगा. लेकिन आगेके सूत्रमें अवधि अधिकारको सूचित करनेके लिए अवधिशब्द कहांसे आयेगा ? दो भेदको दिखानेवाला सूत्र मान लिया तब तो एक भेद भवप्रत्ययका दिखाया, बादमें दूसरा सरे सत्र से दिखाना होनेसे अवधिशब्दकी जरूरत दूसरे में होगी. लेकिन अधिकारसे ही अवधिशब्द आ जायगा. यद्यर्षि अवधिप्रदकी अनुषृत्ति इधर सूत्रमें आ For Personal & Private Use Only Jain Education International : www.jainelibrary.org

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