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दोनोंका भी मन्तव्य है तो फिर यह उलटपलट क्यों हुई ? दिगम्बर और श्वेताम्बर सब ही ऐसा मानते ही हैं कि सत्र प्रमत्तसंयत आहारकशरीरको नहीं करते हैं. जब सब प्रमत्त, साधु आहारक न कर सके तो पीछे 'प्रमत्तसंयतस्यैव' ऐसा कहना फिजूल ही है. दिगम्बरोंकी ओरसे कभी ऐसा कहा जाय कि 'प्रमत्तसंयतस्यैव' यह कहनेकी मतलब यह है कि अप्रमत्तसंयत होवे वे आहारकवाले न होवे, ऐसा कभी दिगम्बरोंका कहना होवे तो वह भी फिजूल है. सबब कि अप्रमत्तः गुणठाणा आहारकशरीरवालेको भी होता है. यदि कहा जाय कि आहारकशरीर जिस वक्त बनावे उस वक्त अप्रमत्तपना नहीं होता है, किंतु आहारकशरीर बनजाने के बाद अप्रमत्तपना हो सकता है, तो इधर यह बात जरूर सोचनेकी है कि क्या अप्रमसपना हुआ उस वक्त उसके आहारकशरीरको आहारकशरीर नहीं गिना है?, गिना है तो फिर 'प्रमत्तसंयतस्यैव' याने प्रमत्तसंयतकोही आहारकशरीर होता है यह कहना कैसे लाजिम होगा? याने न तो सब प्रमत्तको आहारक होता है और न सब आहारकशरीरवाले प्रमत्तही होते हैं. लेकिन पूर्वधरपने में तो नियम ही है कि जो चतुर्दशपूर्वको धारणकरनेवाला हो वही आहारक करता है. अब साफ होगया कि श्वेताम्बरों का माना हुआ 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' यही पाठ सत्य है, और 'प्रमत्तसंपतस्यैव' ऐसा दिगम्बरोंका कहा हुआ पाठ असत्य और कल्पित है।
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