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२३ वां सूत्र दिगम्बरोंने भी माना है, इससे स्पष्ट है, तो फिर खुद सूत्रकारने ही बारह भेदका उद्देश किया तो पीछे निर्देशमें सोलहभेद कहांसे कहा जाय ?, दूसरा यह भी है कि ई लोक तकके देवता तो कायसे मैथुनसेवाके प्रविचारवाले हैं
और आगे स्पर्श रूप शब्द और मनसे प्रविचार करने वाले हैं। यद्यपि इधर श्वेताम्बरलोग तो दो दोमें स्पादिकका प्रविचार मानते हैं. और सूत्रकारने भी 'द्वयोर्द्वयोः' ऐसा कहकर ३-४ में स्पर्श५-६ में रूप७ ८ में शब्द९-१०-११-१२ में मन, इस तरहसे प्रविचारके लिये स्थिति मानीही हैं. यहां दिगम्बरके हिसाक्से पेश्तर स्पर्शके विषय में तो दो देवलोक रहेंगे, बाद रूप शब्द और मन इन तीनों में भी चार चार देवलोक लेने होंगे. सूत्रकारको यह कैसे इष्ट होवे ?, क्यों कि एकमें दो और तीनमें चार चार देवलोक लेना होवे और कुछ भी संख्याका निर्देश न करे,दिगम्बरोंके हिसाबसे तो सूत्रकारको 'द्विचतुश्चतुर्द्विकेषु' ऐसा कहना ज़रूरी था. ऐसी शंका नहीं करना चाहिये कि आखिरके मनःप्रबिचारमें तो वैसा चार देवलोक तो श्वेतांबरोंको. लेनाही है तो मनके विषयकी तरह. इधर तीनमें भी चार चार देवलोक मानना क्या बुरा है? वह शंका नहीं करनेका सबब यह है कि सूत्रकारमहाराजने ही आणतप्राणत' को और 'आरण अच्युत को इकडे गिने हैं. और इसीसे ही खुद सूत्रकारनेही 'आणतप्राणतयोः' और 'आरणाच्युतयों, ऐसा अलग अलग और एकत्र समास कर दिखाया है. इतनाही
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