________________
( १३२ )
"
पाठ भी सूत्रकारकी शैलसे विरुद्ध है, अव्वल तो यह सोचिये कि दोनों देवलोक में स्थिति अलग २ दिखाते हैं या एक ही स्थिति दिखाते हैं ? यदि मान लिया के अलग अलग स्थिति दिखाने की है याने सौधर्म देवलोककी अलग और ईशानदेवलोककी भी अलग दिखानी है. तो दोनुंका समुच्चय करनेके लिए 'चकार' दाखल करना ही चाहिये, सूत्रकार हरेक स्थान पर समुच्चय के स्थान में चकार लगाते ही है. यदि कहा जायके दोनों देवलोककी स्थिति साथही कहनी है तो पीछे ' अधिके ' ऐसा कह नहीं सक्ते हैं, किन्तु ' साधिके ऐसा ही कहना होगा, दुसरी बात यह भी है के आगेही " स्थितिप्रभाव०' इस सूत्र में साफ साफ कहा है के हरेक देवलोक पेस्वर पेस्तस्के देवलोककी अपेक्षा से ज्यादा स्थिति लेनी, तो इधर प्रथम और दुसरे देवलोक में स्थिति सरखी कैसे होवे । इसी तरह से आगे सूत्र ३३ में भी दिगम्बरोंने 'अपरा पल्योपममधिकं ऐसा चकार लगाये बिना ही पाठ माना है, तो उससे अपरा याने जघन्यस्थितिमें भी दोनुं देवलोक में फरक नहीं रहेगा. और फरक नहीं रहने से 'स्थिति०' आदि सूत्र झूठी हो जायगा, यदि वहां जघन्यस्थिति में प्रथम देवलोक में एक प्रल्योपम और दूसरे देवलोक में पल्योपम अधिक स्थिति माननी हो, तो वहां मी चकार लगाना ही चाहिये, area aa स्वर “सौधर्मादिषु यथाक्रमं ' ऐसा अधिकार क्षेत्र माना है,
,
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org