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सूत्रमें 'द्वितीयादिषु' ऐसा पद कहा है, वही पद इधर कहनेकी जरूरत होती. याने ऐसा सूत्र कहना होता कि 'द्वितीयादिषु परतः परतः पूर्वा पूर्वाऽनन्तरा' 'नारकाणां च' लेकिन ऐसा सूत्र नहीं कहा, यही स्पष्ट दिखा रहा है कि सूत्रकार: महाराजको यह जघन्यस्थितिका सूत्र देवलोकमें दूसरे आदिसे लगाना नहीं हैं. इससे साफ हो गया कि दिगम्बरोंका माना हुआ पाठ असल आचार्यजीका बनाया हुआ नहीं है. इससे यह भी साफ होगया कि आगे भी 'सागरोपमे' 'अधिके च' यह सूत्र तीसरे चौथे देवलोककी जघन्यस्थितिके थे. व भी दिगम्बरोंने उड़ा दिए हैं. इस स्थानमें यह शंका जरूर होगी कि यदि ‘सौधर्मादिषु यथाक्रम' ऐसा अधिकार सूत्र ही श्वेताम्बरोंने माना है तो फिर 'सप्त सनत्कुमारे ऐसा सूत्र बनानेकी क्या जरूरत थी ?, क्योंकि पेश्तर दो देवलोककी स्थिति आगई है, इससे यह तीसरी स्थिति तीसरा देवलोककी है, यह स्पष्ट मालुम होजाता है. लेकिन यह शंका योग्य नहीं है. सबब यह है कि आगेके सूत्रमें 'विशेष' अधिकस्थिति चौथे माहेन्द्रदेवलोकमें दिखानी है तो वहां पर चौथा देवः लोक और अधिक सातमागरोपमकी स्थिति ये दोनों बातें स्पष्ट मालूम होजाय, इसीसे इधर यह सूत्र जरूरी है, दूसरा यह भी कारण है कि तीसरा चौथा देवलोक एक बलयमें होने से कोई मनुष्य दोनों देवलोक में साधिकसागरोपमकी स्थिति
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