Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 147
________________ (१३६) मान ले, इससे भी सनत्कुमारकी स्थिति अलग दिखाने की जरूरत है. इसीतरहसे आगे भी 'आरणाच्युतावं' इस सूत्रों भी देवलोकका नाम लेने की यह जरूरत है, कारण कि आरणाच्युतको एक साथ गिनना और इसी तरहसे आनतप्राणतको भी समसमासवाले होनेसे एक साथ गिनना यह बात स्पष्ट हो जाय. इसी तरहसे प्रतिवेयकमें एकेक सागरोपम बढाने के लिये नत्र अवेयक ऐसा कहा और सारे विजयादिचारमें एकही बढाने के लिये 'विजयादिषु' ऐसा कहा है, और सर्वार्थसिद्धि में अजघन्यानुस्कृष्ट तैतीस सागरोपम स्थिति है यह दिखाने के लिये उसका भी नाम स्पष्ट कहा है, अन्तमें यह सब व्यवस्था अधिकारसूत्र कहनेसे ही हुई है, और चौथे आदि देवलोकोंके नाम भी अधिकार सूत्रकी सत्तासे ही कहने नहीं पडे है. (३२) आगे भी इधर चौथे अध्याय में व्यन्तर और ज्योतिष्कोंके विषय में जघन्य और उत्कृष्टस्थितिमें सूत्रके पाठ भिन्न भिन्न हैं, लेकिन उस विषयमें सूत्रकार महाराजका स्वतंत्र ऐसा कोई वचन नहीं हैं कि जिससे घुसेडने वाले या उडादेनेवालेको पकड सकें. यद्यपि इसी ही सूत्रका भाष्य स्वोपज्ञ होनेसे और इन्हीं आचावेजीके बनाये हुए और और ग्रन्थक आधारसे विपर्यास करनेवालेका निर्णय कर सकते हैं, लेकिन उसमें अभी अन्य ग्रन्थसे उतरना ठीक नहीं गिनकर इस स्थान में संकोच ही ठीक है.. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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