Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 148
________________ (१३७ ) ( ३३ ) अध्याये पांचवेंमें दिगम्बर लोन 'गतिस्थित्युपः ग्रहो धर्माधर्म योरुपकारः ? ऐसा १७ वें सूत्रमें पाठ मानते तब श्वेताम्बर लोग " ० त्युपग्रहो ० ' ऐसा पाठ मानते हैं. इधर समझना इतना ही है कि हरएकका उपकार अलग - २ है हर एकके दो उपकार न होनेसे 'उपग्रहौ' ऐसा द्विवचन करना मुनासिबही नहीं है. और यदि दोनों के लिये द्विवचन रखना होवे तो 'धर्माधर्मयोः कृत्स्ने' वहां पर भी एकवचनांतही अवमा हकी अनुवृत्तिके लिये कठिनता होगी वहां पर भी 'अवगाहों' : ऐसा ही करना होगा. ( ३४ इसी अध्याय में २८ वें सूत्रमें श्वेताम्बर लोग 'भेदसंघाताभ्यां चाक्षुषाः ऐसा पाठ मानते हैं, तब दिगम्बर लोग 'भेदसंवाताभ्यां चाक्षुषः? ऐसा मानते हैं अब इस स्थानमें यदि प्रेस या शोधककी गलती न होवे तो कहना चाहिये कि श्वेताम्बरों का माना हुआ डी पाठ योग्य हैं, और दिगम्बरोका पाठ अयोग्य ही है. सबब कि पेश्वर सूत्रकारने 'अगवः स्कनाथ' ऐसा सूत्र करके बहुवचनान्त हीं स्कन्धशब्द रखा है, और दिगम्बरोंने भी ' संघातभेदेभ्यः उत्पद्यन्ते'ऐसा सूत्र: २६ का पाठ माना है. इससे स्कन्धशब्द वहां भी बहुवचनान्तही माना है, तो फिर इधर एकवचनान्त स्कन्ध शब्दकी अनुवृत्ति कहाँसे आयेगी ? और एकवचनान्तले क्या फायदा है ? ऐसा नहीं कहना चाहिये कि जैसे 'मेदावजुः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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