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(१३०) नहीं, किन्तु आरणाच्युताx०' इस ३२ वें सूत्रमें खुद आचार्यमहाराजने ही आरणाच्युतका इकट्ठापना दिखाया है इससे आनत
और प्राणतको आरण और अच्युतको तो दो गिनना सूत्रकारके वचनसे है. लेकिन रूप और शब्दके विषय में चार २ देवलोक लेना यह तो सूत्रकारके द्वयोर्द्वयोः वचनोंसे खिलाफ ही है. आगे पर और सोचनेका जरूरी है कि दिगम्बरोंके हिसाबसे माहेन्द्रदेवलोककी स्थितिके सूत्र के बाद 'त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधिकानि तु' इस स्थितिके सूत्रमें ७-३=१०, ७-७=१४, ७-९=१६, ७-११-१८, ७-१३-२०, ७-१५=२२ इस तरहसे छ ही देवलोककी स्थिति दिखाई है, और आगेके सूत्रमें अवेयकादिकी स्थिति दिखाई है. इधर श्वेताम्बरोंके हिसाबसे सूत्रके आदिमें 'विशेष' शब्द माहेन्द्र की स्थिति के लिये है.. बाद ५-६-७-८ ये चार देवलोक स्वतंत्र और ९-१० का एक बाद ११-१२ का एक, इस तरहसे छः स्थान हो जाते हैं, लेकिन दिगम्बरोंके हिसाबसे तो इधर स्थितिके क्रमको देवलोककी संख्याके साथ मिलानका रास्ता ही नहीं है. इन सब सबबोंसें साफ हो जाता है कि दिगम्बरोंने अपनी मन्त. व्यता घुसेडकर इस सूत्रको साफ बिगाड दिया है. - (२९) सूत्र २८ वें दिगम्बरोंने स्थितिरसुरनागसुव. वर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्धहीनमिताः' ऐसा सूत्र माना है. अकलमन्द आदमी इस सूत्रको देखतेही कह सकते
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