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वैसी जगह यह नाम होनेसे उ प्रत्यय आने की जरूरत है यह बात व्याकरण के जानकारोंसे छिपी हुई नहीं है.
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(२७) इसी तरहसे इन दिगम्बरोंने पारिषद्य नामको ताओंके लिये 'परिषद्' ऐसा पद कहा है, यह भी शोचनीय हैं. ( २८ ) इस चौथे अध्याय के १९ वे सूत्र में तो दिगम्ब बड़ा ही जुल्म कर दिया है, श्वेताम्बरलोग इस सूत्र का पाठ 'धर्मेशान सनत्कुमार माहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहा शुक्र महा वान्ताणतरारष्ट्रा च्यूत्रयोर्नवसु देवेयकेषु विजयन्तसन्तापराजितेषु सर्वार्थसिद्धे च' इस तरहसे मानते हैं. दिगम्बर लोग इस सूत्र ब्रह्मके जागे ब्रह्मोत्तर लान्तद(क) के आगे कापिष्ट और शुक्र फिर महाशुक्र के आगे शतार, इस तरहसे चार देवलोक ज्यादह मानते हैं असल में यह सूत्र वेताम्बराचार्यका किया हुआ था, इससे इधर कल्पोपपन बारह ही देवलोक गिनाये थे. लेकिन दिगम्बरोंने अपनी मान्यता जब सोलह कल्पापपत्र देवलोक बना दिये, ये देवलोक असल आचार्यक पाठन नहीं थे इसका सबूत इसी अध्यागमें दिगम्बरोंकी मान्यता मुजब भी साफ साफ है. देखिए, पेश्तर तो दे ओके भेद दिखाये हैं, जिसमें ही 'दशाष्टपंचद्वादविकल्पाः उपनयन्ताः' इस सूत्र से कल्पोपपाके नार
और बैंक विमानसे पैकरके ती 'प्रोगू विययः
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