Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 137
________________ ( १२६ ) : नहीं होता था ?, यदि दिगम्बरों का यह मानना हो तो वह निहायत अनुचित है, क्योंकि तिर्यग्योनिशब्द से तिर्यंच नहीं लेंगे तो पीछे ' तिर्यग्योनिज ' शब्द ही तियंचोंके लिये कैसे होगा ? असलम सूत्रकारने तो 'तिर्यग्योनि' ऐसा ही शब्द रखा है, देखिए अध्यायचौथेका सूत्र २७ 'औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः' इधर तिर्यंचोंका लक्षण या संज्ञा करते भी ' तिर्यग्योनि' यही शब्द कहा है. इधर सूत्रकारने ' तिर्यग्योनिजाः' ऐसा दिगम्बरों का फिराया हुआ पाठ न तो सूत्र में दिया है और न दिगम्बरोंने ऐसा माना है. इसी तरह से 'माया तैर्यग्योनस्य' इस सूत्र में तिर्यग्योनिज शब्द तिर्यंचके लिये नही माना है, इधरतो आयु दिखाने में 'तैर्यग्योन' शब्द तद्धितांत है सूत्रकार महाराजने तो तिर्यग्योनिशब्दसेही तिर्यच लिये है, और केवल अपनी आदत से अन्यथा कह कर तिर्यचोंका आयुष्य दिखाया है इससे साफ होता है कि दिगम्बरोंने ही यह पाठ बिगाडा है. (२५) अध्याय चौथे में दिगम्बर 'आदितस्त्रिषु पीततिलेश्या: ' ऐसा सूत्र मानते हैं. तब श्वेताम्बर 'तृतीयः पीतलेश्यः' ऐसा सूत्र मानते हैं, इस विषयकी समालोचना सूत्रकी अधिकता के विषय में होगई है. सबब यह बात वहां ही से समझ लेना उचित है. दूसरा यह है कि यदि सूत्रकारका किया हुआ ऐसा सूत्र होता तो ऐसा अस्तोव्यस्त सूत्र कभी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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