Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 136
________________ (१२५) जघन्यस्थितिको अपरा स्थिति कहते हैं. देखिए चौथे अध्यायमें देवताओंकी जघन्यस्थिति में अपरा पल्योपम' (३३) 'तदष्टभागोऽपरा' ऐसे ही 'अध्यायआठवेंमें भी 'अपरा द्वादशमुहूर्ता' (१८ ) इन सूत्रों को देखनेसे मालूम होता है कि सूत्रकार जघन्यस्थितिको अपरा ही कहते हैं. दूसरी यह भी बात साफ है कि जहां पर उत्कृष्टस्थिति दिखानेकी होती है वहां 'परा' शब्दसे ही व्यवहार करते हैं. जैसा इसी तीसरे. अध्यायमें मनुष्यतिर्यचकी उत्कृष्टस्थितिमें उत्कृष्टस्थिति दिखाने में इसी सूत्रमें 'परा' का व्यवहार किया है. इसी तरहसे नारकोंकी उत्कृष्टस्थितिका सूत्र जो नं. ६ का है, उसमें पराशब्दसे ही उत्कृष्टस्थिति कही है. अध्यायचौथेमें 'परा पल्योपममधिकं च' ( ३९) दिगम्बरों के हिसाबसे भी उत्कृष्टस्थितिमें परापदका ही प्रयोग मान्य है, तो फिर उत्कृष्ट से प्रतिपक्ष ऐसी जघन्यस्थिति दिखानेमें 'अपरा' ऐसाही पदका प्रयोग होवे. लेकिन दिगम्बरोंने अपनी आदत मुजब कुछ भी फर्क डालना चाहिये ऐसा सोच कर इधरं 'प' के स्थानमें 'व' करके 'परावरे' ऐसा कर डाला है.. ( २४ ) सूत्र नं. ३९ में श्वेताम्बरलोग "तिर्यग्योनीना च' ऐसा पाठ मानते है. इस स्थानमें 'तिर्यग्योनीना' के पाठकी जगह पर दिगम्बरोंने 'तिर्यग्यौनिजानां च ऐसा टेंदा पाठ क्यों किया ?, क्या तिर्यग्योनिशब्दसे तिर्थचोंका बोध 71 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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