Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 134
________________ (१२३) दिखानेके लिये परामर्श करनेवाले पदकी जरूरत थी. लेकिन इन दिगम्बरोंने वह परामर्श करनेवाला पद उड़ा दिया. कभी ऐसा कहा जाय कि पेश्तर जंबूद्वीपका अधिकार होनेसे उसकी अनुवृत्ति हो जायगी, और अन्वय लगानेके लिये सप्तमी लगाकर तत्र ऐसा ले लेंगे. यह कहना व्यर्थही है, क्योंकि अव्वल तो सूत्रकारकी यह शैली ही नहीं है, और ऐसा ही मान लें तो इधर तो सप्तम्यन्तका कोई भी सूचक पद नहीं है, लेकिन आगेके सूत्रमें 'तद्विभाजिनः' इस सूत्र में परामर्श करनेकी कोई जरूरत नहीं थी. इससे साफ है कि इधर 'तत्र' पद होना ही चाहिये. दिगम्बरोंकी ओरसे कभी ऐसा कहा जाय कि ये भरतादिक क्षेत्र अकेले जम्बूद्वीपमेंही नहीं लेने हैं. किन्तु धातकीखंड और पुष्करार्धमें भी येही भरतादिक. क्षेत्र लेने हैं, इससे इधर 'तत्र' शब्द लेनेकी जरूरत नहीं है. लेकिन यह कहनाभी व्यर्थ है. इसका सबब यह है कि आगे 'द्विर्धातकीखंडे' 'पुष्करार्धे च' ऐसा कहकर वहां पर तो भरतादिकका द्विगुणपना लेना है, इससे यह सूत्र तो जम्बूद्वीपके लिये ही रहेगा, और इधर 'तत्र' ऐसा पद ज़रूर चाहियेगा. दिगम्बरोंके हिसाबसेभी तो यह सूत्र जंबूद्वीपादि तीनस्थानके लिये रह सकता ही नहीं है. सबब कि इन लोगोंने जो मंत्र बढाये हैं उसमें सब अधिकार जम्बूद्वीपका ही लिया है. यावत. भरतको १९० में भागमें लिया है, वह जम्बूद्वीपके सिवाय नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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