Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 131
________________ ( १२० ) , यथाक्रमं शब्द लगादेना यह भवभयकी रहितता दिखानेकी साथ घुसेडने वाले की बालिशताही दिखाता है. इससे साफ होगया के यह दिगंबरोंका कल्पितही सूत्र है. दिमंत्ररोंने यह कल्पितः बनाया है और श्वेतांबरोंने माना हुवा सूत्र व्याजबी है, इसकी स्पष्ट सबुत मोजूद है, वो यह है के दोनुं मजहबवाले आगेका सूत्र ६ ट्ठा इस तरहसे मानते हैं 'तेष्वेकत्रिसप्तदश सप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सत्त्वानां परा स्थितिः ' इस तरहका सूत्र: जब दोनुके मतसे मंजूर है तो पीछे उभर ' तेषु ' शब्द से किसकी अनुवृत्ति करेंगे. श्वेतांबरोंने तो 'तासु नारकाः' ऐसा सूत्र मान लिया है, इससे उनको तो सातोही भूमिमें रहे हुके सातही तरह की नरको अनुक्रमसे आयुष्य आ जायगा, लेकिन दिगंबरोंने तो लक्खो नरकावास लिये इससे सात स्थितिओंका संबंध कहां दिखाएंगे, इतना ही नहीं, किन्तु छ नरकके नरका-: वास तो एकसमास से कहे है और सप्तमीका नरकावा सभी अलम कहा है, इससे भी सात स्थितिओंका सम्बन्ध कैसे लगाया जायगा १, इधर इतना सोचना जरूरी है कि सूत्रकारकी शैली है कि समासके अलमपनेसे स्थितिका सम्बन्ध अलग रखते हैं. और इसीतरहसे देवताओंके अधिकारमें आनताणत, आरअच्युत और विजयादिकको एकसमास में कहे और स्थिति में नवमे दशवेंमें और ग्यारहवें बारहवें में दो दो सागरोपम बढाये: हैं. और विजयादिमें एकही बढाया, इस रीति से इधर भी समझ For Personal & Private Use Only Jain Education International . www.jainelibrary.org

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