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बिगाड़ दिया है. क्योंकि अब्बल तो संग्रहकारकके वचनमें इतना विस्तार ही असंगत है. और यदि सूत्रकारमहाराजकी ही कृति होती तो ऊपर और नीच हजार योजन जो हरएक पृथ्वी में वर्जनेका है वह बात क्यों नहीं कहते ? दूसरा यह भी है कि लक्षशब्दको छोडकर शतसहस्र जैसा बडा शब्द क्यों डालें ? यदि नारकके लिये नरकावासकी संख्या कहें तो फिर सौधर्मादिकदेवलोक में विमानोंकी संख्या और भवनपतिआदिके भवनकी संख्या सूर्यचन्द्रका प्रमाण आदि क्यों न कहें ? तच्चार्थकार जैसे अक्कलमंद आचार्य क्या ऐसा नहीं कह सक्ते हैं के जिससे विधेयपद मुख्य होवे और पंचकी संख्याको भी अलग न करना पडे, ऐसा नहीं कहना के ऐसा हो सकता ही नहीं देखिये इस तरह से होवे के " तासु त्रिंश: स्पंचविंशतिपंचदशदशत्रिपंचो ने कलक्ष पंचनरका: ? ? अकलमंद सोच सक्ते हैं के यह चैवशब्द ही कह रहा है के यह दिगंबरों का कर्तुत है, और यथाक्रमं ' यह शब्द भी बिन जरूरी है, यदि समानसंख्या होनेपर भी यथाक्रमं शब्दकी जरूरत होवे तो तेष्वेके ' त्यादि जो नरककी स्थितिवाला सूत्र है वहां 'यथाक्रमं ' शब्द क्यों नहीं ?, सूत्रकार महाराजकी ( २-१ ) सूत्र जो भावोंका उद्देशरूप है वहाँ या ' पंचनव० ' ऐसा कर्म के भेदों का उद्देशरूप सूत्र है वहांही यथाक्रम शब्द लगाते है और, इधर वैसा उद्देश और निर्देश अलग है ही नहीं, ऐसी अवस्था में
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