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नाहारकः' ऐसा पाठ है इधर सोचनेका यह है कि जब पेश्तरके सूत्रमें 'प्राक् चतुर्व्यः' कहकर तीन ही समय तक विग्रहका होना माना है, और उसमें एकसमयको विग्रह तरीके माननेका ही नहीं है, तो फिर तीन समय अनाहारके कहांस होंगे ?
और तीनसमयकी गतिमें तीनों ही समय अनाहारके मानोंगे तब तो एकसमयका अविग्रह कहां रहेगा? और ऋजुगतिमें भी अनाहारकपना मानना होगा. इससे 'एक द्वा वाऽनाहारकः' ऐसा कहना ही लाजिम होगा. ऐसी शंका नहीं करना कि विग्रहगति पांच समय तक की होती है. क्योंकि जो अधोलोकके कोणमेंसे ऊर्ध्वलोकके कोण में उत्पन्न होगा उसको पांच ही समय होंगे. आद्यसमयमें विदिशासे दिशामें आवेगा. दूसरे समयमें सनाडौँम आवेगा. तीसरे समयमें ऊर्ध्वलोकमें जायगा और चौथे समयमें दिशा में जाकर पांचवें समयमें विदिशामें जायगा. जब इस तरहसे पांचसमयकी गति होकर चार वक्र होते हैं, तो फिर इधर तीन वक्र ही क्यों कहे ? ऐसी शंका नहीं करनेका सबब यह है कि ऐसा संभव होने पर बहुतायतसे 'ऐसी गति नहीं होती है. और इसीसबबसे भगवतीसूत्रमें भी चार समयकी गतिका ही अधिकार लिया है: चारसमयकी गतिमें आद्यान्तसमयोंमें अनाहारक न होनेसे दो ही समय 'अनाहारपना रहता है, और इसीसे ही इधर एक या दो समय ही अनाहारकपनका लिया है. टीकाकारसिद्धसेनसरिजीमहा
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