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इस सब झंझटसे छूटने के लिये एक ही रास्ता है और वह यहे है कि धर्मास्तिकायका अभावरूप हेतु सिद्धमहाराजकी गतिमें नहीं रखना. क्योंकि धर्मास्तिकायका अमाव तो सर्वअलोकमें है और धर्मास्तिकायके अभावसे सिद्धमहाराजकी गति मानें तो उन्होंकी गति मब अलोकमें होवे, और अलोकाकांशका अन्त ही नहीं है. जिससे सिद्धमहाराजकी हरदम गति होती ही रहे. इस हेतुसे सिद्धमहाराजकी गतिमें धर्मास्तिकायके अभावको कारण नहीं माननाही लाजिम है, किन्तु लोकान्तसे आगे धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे लोकान्तसे आगे सिद्धमहाराजोंकी गति नहीं है, ऐसा दिखानेके लिये यह सूत्र है. याने धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे सिद्धकी आगे गति नहीं होती है. यद्यपि इस तरहसे दिगम्बरोंका मानना लाजिम हो जावे, लेकिन सूत्र इस बातको अनुकूल नहीं गिनता है, क्योंकि इससूत्रमें सिद्धमहाराजकी गतिका अधिकार है किन्तु अलोकमें सिद्धगतिके अभावको सूचित करनेवाला शब्द भी नहीं है. कमी श्वेताम्बरोंने 'तद्गतिः' ऐसा पद 'पूर्वप्रयोगा' सूत्र में रक्खा है और उधर 'सद्' शब्द जैसा सर्वनाम है और मिन मिन्न विभक्तिसे ही और २ अर्थको देता है. उसी तरहसे 'तद्' शब्द अव्यय भी है और अव्ययसे आगे आई हुई सब विभक्तियां उड जाती हैं, लेकिन वे उडी हुई विभक्तियां अपने अर्थको दिखाती हैं इससे अर्थ करने में 'तद्' शब्दको अव्यय ले लें तो. सिद्धोंका अधिकार तो आ
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