________________
(९४)
हेतु दिखा दिये, लोकन 'तद्गतिः' इस पदसे क्या फायदा है ? इसका समाधान यह है कि पहिले 'गच्छति' ऐसा पद धरा है वह तो यथावस्थितस्वरूप व्याख्यानके लिये है और सिद्धोंकी गति सुनने बाद शंका होवेके उन सिद्धमहाराजको न तो कोई सिद्धक्षेत्रमें लेजानेवाला है, और न कोई कर्मका उदय है, न इधरसे फेंकनेवाला या भेजनेवाला है, तो फिर उनकी गति किस सबबसे होती है ? ऐसी शंकाके समाधान के लिये इन हेतुओंका कथन करना और 'तद्गतिः' यह पद कहना लाजिम ही है. ऐसी भी शंका नहीं करना कि जब तर्कानुसारियोंके लिये हेतुओंका कहना और 'तद्गति' पद धरना लाजिम है तो फिर उनके लिये ही दृष्टान्त कहना क्यों जरूरी न होगा ? क्योंकि 'सकषायत्वात् ' सूत्र में जैसे हेतु कहने पर भी दृष्टान्त . नहीं लिया इसी तरह इधर भी दृष्टान्त नहीं लिया है.
- (२८) दशवें ही अध्यायमें दिगम्बरलोग 'आविद्धकुलालचक्रवदित्यादि' सूत्रके बाद 'धर्मास्तिकायाभावात्' ऐसा सूत्र मानते हैं. यह सूत्र दिगम्बरोंने किस रीतिसे डाल दिया इसका पता नहीं है सबब कि पेश्तरके 'पूर्वप्रयोगा०' और 'आविद्धकुलालचक्र०' इत्यादि इन दो सूत्रोंसे सिद्धमहाराज की लोकान्त तक ऊर्ध्वगति होनेका हेतु और दृष्टान्त दिखायाहै. और उस गतिमें यदि हेतु लिया जाय तब तो यही कहना होवे कि 'तावद्धर्मास्तिकायात्' याने लोकान्त तक ही धर्मा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org