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अपने स्वभाव ही से चलमरूप गमन होता है. इससे उनको क्र्स कहने में क्या हर्ज है? ऐसा नहीं कहना कि सुखदुःखकी इच्छासे ही हीलचाल करे उसीका ही नाम त्रस कहा जाय. क्योंकि ऐसा कहने से तो त्रसरेणुशब्द से क्या लेना ? त्रसरेणु तो उसी ही जड पदार्थका नाम है जो बारीक होकर पूर्वापर वायु आदि के कारण से पश्चिम पूर्व की ओर धसे. यह सब कहनेका मतलब यह है कि अनिकाय और वायुकायको त्रसमें ले 'सक्ते हैं. अलवतः इनको गतिके कारण से त्रस कहेंगे, परंतु सुखदुःखके कारण से हलचल नहीं होनेसे लब्धिसे स्थावर कहना होगा. याने जैसे बेइन्द्रियादिक लब्धिसे त्रस हैं ऐसे ये लब्धिसे त्रस नहीं हैं, और इसी कारणसे तो त्रसकायके सूत्र में 'तस्वार्थकार महाराजने 'तेजोवायू' यों समास अलग करके इन दोनोंका अलग स्वरूप दिखाया है. क्योंकि ऐसा कुछ अभिप्राय न होता तो 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयस्त्रसाः' ऐसा सूत्र करते, जिससे अलग विभक्ति भी नहीं रखनी होती और चकारको भी बढ़ाना नहीं पडता. ऐसा नहीं कहना कि श्वेताम्बरोंके किसी शास्त्रमें तेजो और वायुको त्रस तरीके नहीं गिने हैं. किन्तु स्थानांग भगवतीजी पण्णवणादिशास्त्रोंमें पृथ्व्यादिक पांचोंको ही स्थावर गिने हैं. ऐसा नहीं कहने का यह सबब है कि जीवाभिगम और आचारांगआदिमें तेज और वायुको स्थावरमें नहीं गिनते त्रसमें गिने भी हैं. तच्वसे तो तेजःकाय
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