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श्वेताम्बरोंने दो सूत्र अलग अलग थे उनको मिलाकर एक करं दिया ?, अकलमंद आदमी समझ सकता है कि इधर असल अलग अलग सूत्र होगा ही नहीं. और यह सोचना जरूरी है कि सूत्रकार 'अन्यत्र' शब्द करके जो अपवाद बताते हैं वह एकसूत्र होता है तभी होता है अलग २ सूत्र होते तब तो एक नकारसे ही अपवाद दिखा सकते थे. सूत्रकारकी शैली - भी यही है. देखिये ( ३३७ ) 'भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोअन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः' इस तीसरे अध्याय के सूत्रमें भरतादिकक्षेत्रोंका कर्मभूमिपनका विधान करते देवकुरु आदिमी महाविदेहांतर्गत होनेसे कर्मभूमि हो जाते थे, इससे इधर 'अन्यत्र ' ऐसा कहकर देवकुरुआदिको वर्जित किया है. इसी तरह से इधर भी साफ समझने का हैं, याने औपशमिकादिकभावका सर्वथा अभाव कह देने में केवलसम्यक्त्वज्ञानादिकका अभाव भी होजाता था इससे सूत्रकारमहाराजने 'अन्यत्र केवल' इत्यादि कहकर उन सम्यक्त्वादिकका जो अभाव होता था वह रोक दिया यह रिवाज इधर तत्त्वार्थकार महाराजने ही रक्खा है, ऐसा नहीं है, किन्तु वैयाकरणाचार्योंने भी यही रिवाज रखा है. और इसीसे ही उन वैयाकरणाचार्योंने 'संप्रदानाच्चान्यत्रणादयः' इत्यादि सूत्र इकट्ठे ही किये हैं, याने इन दोनों भागों को अलग अलग करके दो सूत्र बनाना यह उचित ही नहीं है: कितनेक तो इतना तक कहनेवाले मिलेंगे कि जब
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