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में तो दृष्टान्तादि जरूर दिखाते. लोकन् किसी भी स्थानमें दृष्टान्त दिखाया नहीं है. तो इधर अत्यन्तसुगमस्थानमें दृष्टान्त दिखाना यह सूत्रकारमहाराजको कैस उचित होवे ? इधर अक्षपादादि सूत्रकार भी अपने किये हुए सूत्रोंमें इस तरहसे दृष्टान्त नहीं दिखाते हैं तो फिर इधर संग्रहकार होकर दृष्टान्त दिखाने के लिए सूत्र कहें यह कैसे संभवित हो सकता है ? यद्यपि दूसरे सूत्रकार दृष्टान्तबलसे याने बहियाप्तिसे पदार्थकी सिद्धिको माननेवाले होनेसे दृष्टान्तका सूत्र कहभी सक्त हैं, तथापि वे लोग सूत्ररचनाके वक्त दृष्टान्तको मुख्य पद नहीं देते हैं, तो फिर जैनाचार्य जो अन्तयाप्तिसे ही याने अन्यथाऽनुपपत्तिसे ही साध्यकी सिद्धि मानने वाले होकर ऐसे लघुग्रन्थमें दृष्टान्तादिकको डालें यह कैसे संभवित हो सकता है ?, मान लिया जाय कि मोक्षकी स्थिति अत्यन्त उपादेय होनेसे उसकी सिद्धिके लिये दृष्टान्तादि जरूर जताना चाहिये तो फिर 'पूर्वप्रयोगा' इत्यादिसूत्र में ही दृष्टान्त कह देना लाजिम होवे, याने 'कुलालवक्रवत्पूर्वप्रयोगादलाबुवदसंगत्वादेरण्डवीजवदन्धच्छेदादग्निशिखांवत्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः' ऐसा ही कहना लाजिम था. क्योंकि दृष्टान्तका सूत्र अलग करनेसे सभी हेतु अर्थान्तरसे दुबारा कहना पड़ा है. संग्रहके हिसाबसे बार बार वत्प्रत्यय और बार बार पंचमीका कथन करके हेतुका प्रयोग दिखानेका भी
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