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का दिगम्बरोंने माना है. यद्यपि भैत्यशुद्धि करना जैनमजहबके हिसाबसे पूर्णतः जरूरी है. और इसीसे तो माधुकरीवृत्ति जैनोंने मानी है, परन्तु दिगम्बरोंको पात्रादि न रखनेके कारण एकही गृहमें भोजन कर लेना पड़ता है. और माधुकरीवृत्तिको जलांजली देनी पडती है. लेकिन भैक्ष्यशुद्धि प्राणातिपातविरमणके बचावके लिये है. उसको अदत्तादानविरमणसे सम्बंध ही नहीं है. ऐसी निरर्थक बातें श्रीमान्उमास्वातिवाचकजीने तो नहीं कही हैं, यह तो सिर्फ दिगम्बरोंहीका गप्प. मोला है. आगे पांचवीं भावनामें सधर्माविसंवाद नामक भावना बताई है, लेकिन यह भी सम्यक्त्व या प्रथमव्रतकी भावना है. अदत्तादानविरमणसे इसका कोई सम्बंध नहीं है. असलमें तो इस महाव्रतकी भावना यह थी:
मालोच्यावरहयाञ्चाक्षिणावयाचनम् । एतावन्मात्रभित्येतदित्यवग्रहधारणम् ॥१॥ समानधार्मिकेभ्यश्च, तथाऽवप्रहयाचनम् ।
अनुज्ञापितपानामाशनमस्तेयभावनाः ॥ २॥ अर्थात् जिस मकानमें ठहरनेकी मालिकसे आज्ञा मांगना हो उसीवक्त ही कहां २ क्या २ करना है यह स्पष्ट करके मालिक से आज्ञा मांगना, बादमें स्थाण्डिल प्रश्रवण आदि परठने के स्थानमें भी मालिकको अप्रीति न हो ऐसा खयाल करने के लिये फिर भी उस वख्त मालिकका अवग्रह मांगना. फिर भी जहां कहीं साधुको
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