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कारका प्रयोग है. ऐसा अर्थ करनेसे न तो चकार बेकाम होगा और न भेद कहने के पेश्तर ध्याता दिखाया उसकी हर्ज होगा. इस तरहसे दिगम्बरोंका कथन होवे तो यह कथन सम्फ गलत है. सबब कि उन्होंके कथनानुसार अर्थ करें तो अप्रमत्तसे लगाकर क्षीणमोह तक के जीवोंको कौन ध्यान होगा? इसका तो खुलासा रह गया । यह बात तो दिगम्बरों को भी मंजूर ही है कि सब कोई अप्रमत्तसे लगाकर उपशान्तक्षीणमोहवाले जीव पूर्वसम्बन्धी श्रुतका ज्ञान पानेवाले होते हैं, ऐसा नियम नहीं है. इतनाही नहीं, लेकिन दिगम्बरलोग वर्त्तमानकाल में भगवानका कहा हुआ कोई भी सूत्र नहीं है ऐसा मानते हैं, तो क्या सूत्रच्युच्छेद माना तबसे लगाकर लगातार पांचवें आरेकी समाप्ति तक के त्यागी मुनियोंको भी ये दिगम्बर लोग अतरौद्र ध्यानवाले मानेंगे ? मेरा खयाल है कि ये लोग कभी यह बात मंजूर नहीं करेंगे, तब जबरन मानना होगा कि दिगं वने 'उपशान्तक्षीणकषाययोव' यह सूत्र उड़ा दिया है. अब यह सोचनेका है कि 'शुक्ले चाद्ये' और 'पूर्वविद्रः' ये दोनों अलग अलग सूत्र होंगे कि एक ही सूत्र होगा इस विषय में असल निर्णय तो सूत्रकार महाराज ही कह सक्ते हैं, यह बात हैं, लेकिन असल हकीकतको सोचनेसे अपने भी निर्णय कर सकते हैं. अव्वल तो यह सोचना चाहिये कि दो सूत्र अलम करनेसे क्या अर्थ होता है ? और क्या अर्थ
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