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ठहरना हो वहां भी आपने कितनी जगह मालिकसे ठहरनेके लिये ली है, इसका पूरा निश्चय रखना चाहिये. ऐसा न हो कि आपने जिस स्थानकी याचना नहीं की है उस स्थानका उपभोग होजाय, और अदत्तादानविरमणमें दोष लगे. ये भावना तो मकानके मालिक जो गृहस्थ या क्षेत्र देवता होवे उसकी अपेक्षासे हुई, लेकिन जिस मकानमें आगे दूसरे साधुमहात्मा ठहरे हैं और उसमें किसी नये साधुको ठहरना है तो उस नये साधुको चाहिये कि पहिले ठहरे हुए साधुमहात्माकी मंजूरी लेवे. इसीका नाम ही साधर्मिकावग्रहकी याचना करना है. ये चार भावनाएंतो मकानके विषय में अदत्तादान बचानेके लिये हुई, लेकिन दूसरी तरहसे भी अदत्तादानसे बचानेके लिये ही कहा है कि मालिक और आचार्यने जिस अन्नपानका हुक्म दिया होवे वही उपयोगमें लेना चाहिये. इसीके लिये 'अनुज्ञापितपानानाशन' नामकी पांचवीं भावना है.
वाचकगण ! इधर गौर करें कि दिगम्बरोंकी कही हुई 'शून्यागार०' आदि पांच भावनाएं अदत्तादानसे बचावेंगी कि श्वेतांबरोंकी कही हुई 'आलोच्यावग्रहयांचा' आदि पांच भावनाएं अदत्तादानविरमणसे बचावेंगी ?, यदि ये दिगम्बरोंकी कही हुई भावनाएं अदत्तादानविरमणसे सम्बन्धवाली ही नहीं है तो फिर ऐसी कल्पितभावनाएं असंबद्धपनसे बनाकर आचार्यमहाराजके नाम पर ठोक देना कितना अन्यायास्पद
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