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होगा ?, असल में इन दिगम्बरोंकों अवग्रहादि मांगना और भिक्षा लाकर आचार्यादिकको दिखाना यह बात पात्रादिक नहीं रखनेके आग्रहसे इष्ट नहीं है. इसी सबब से इन्होंने इन भावनाओंका गोटाला कर दिया है.
( २१ ) आगे आठवें अध्याय में श्वेतांबर लोग 'स बन्धः' यह सूत्र अलग मानते हैं, व दिगम्बरलोग 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः' ऐसा कह करके एकही सूत्र मानते हैं. श्वेताम्बरोंका कहना है कि यदि एकही सूत्र होता तो फिर शब्द से उद्देश किये बिना तत्शब्द से निर्देश कैसे होवे ? असल में तत्शब्द पूर्वकालमें कही हुई बात के परामर्श के लिये होता है, और जब यह एकही सूत्र है तो फिर तत्शब्दकी क्या जरूरत थी ?, इतनाही नहीं, लोकन् एकही सूत्र होता तो 'सकषाय जीवन कर्म पुद्गलादानं बन्धः' ऐसा ही सूत्र करते. इसमें कितना लाघव होजाता है यह बात अकलमन्दोंस छिपी नहीं है. ऐसा लघुसूत्र नहीं किया इससे साफ जाहिर होता है कि श्रीउमास्वातिवाचकजीने तो इधर दो सूत्र बनाये थे, लोकन किसी पंडितंमन्यदिगम्बरने इस श्वेताम्बर के सूत्रकों अपना करने के लिए उलट पुलट कर दिया जगतमें भी प्रसिद्ध है कि किसीकी चीजको उडाके ले जानेवाला उस चीजको यथावस्थितस्वरूपमें नहीं रखता है. श्रीमान् आचार्य महाराजकी तो यह शैली हैं कि पेश्तर पदार्थका स्वरूप दिखाकर पीछे उसके
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