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पर द्रव्यशब्द कहा ही है। इन ही पांचवें अध्यायमें 'तद्भावः परिणामः' इस सूत्रके पीछे श्वेतांबरोंने 'अनादिरादिमांश्च, रूपिष्वादिमान,, योगोपयामै जीवेषु' ये तीन सूत्र परिणामके भेदोंको दिखाके आदिनाल परिणाम रूपीमें साक्षात् दिखाके अनादिपरिणामका सद्भाव शेषमें सूचित करते हैं। इनको सम्यक्त्व, जीव, उपयोग आदिमें लक्षण और भेदो दिखलानेकी रीतिसे योग्य होनेपर भी दिगम्बरलोग नया करनेकी आदतस ही मंजूर नहीं करते हैं। इन सूत्रोके अभिधेय को वे लोग भी मंजूर करते हैं।
पांचवें अध्यायके आखीरके भागमें दिगम्बरलोग " तद्भावः परिणामः " इस सूत्रसे अध्यायको : समाप्ति करते हैं, किन्तु श्वेताम्बरलोग " अनादिरादिमांश्च" " योगोपयोगी जीवेषु" ऐसा कह कर परिणाम के तीन सूत्र मानते हैं।
श्वेताम्बरियोंका ऐसा कहना है कि परिणामवादही जैन: मजबकी असली जड है, और उसके अनादिसादिपनसे अनेकान्त में भी अनेकान्तकी व्याप्ति सिद्ध होती है ऐसा दिखाकर सम्पूर्णतया स्वाद्वादका ख्याल दिया गया है, एवं वह परिणा रूपी अरूपीमें और जड चेतन में किस प्रकार है, यह दिखलाना जरूरी समझ करही आचार्यश्रीने उस अधिकारको संग्रहमें लिया है
(१५). आमे छड्ढे अध्मायमें मनुष्य के आयुष्यके आश्रव में 'अल्पारंपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च मानुफ्स्य' ऐसा
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