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श्वेताम्बरियोंने ही दाखिल कर दिया है, तो ऐसा कहना भ्रम. मात्रही है, क्योंकि "माया तैर्यग्योनस्य” इस सूत्रसे जब मायाका फलरूप आयु बतलाया तो फिर आर्जवताका फलरूप आयुष्य बताया जाना आवश्यक ही है । इसके सिवाय मार्दवके साथ आर्जव लेना भी उचित ही है।
१६ छठे अध्यायमें दिगम्बरियाने "सरागसंयमा" इत्यादि देवताके आयुष्यके कारणोंको दिखानेवाले सूत्रके आगे फिर भी “सम्यक्त्वं च" ऐसा कहकर एक सूत्र विशेष माना है। श्वेताम्बरी लोग इस सूत्रको नहीं मानते हैं। श्वेताम्बरियोंका कहना ऐसा है कि "मनुष्य या तियंचका जीव सम्यक्त्वकी स्थितिमें यदि आयुष्य बान्धे तो अवश्य ही देवताका आयुष्य बांधता है ।" किन्तु "सम्यक्त्वं च” इस सूत्रसे देवताके आयुष्यका कारण सम्यक्त्व है ऐसा दिखलाना सर्वथा अनुचित है। इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वसे सिर्फ वैमानिकका ही आयुष्य बांधा जाता है, किन्तु यहां पर तो सामान्यसे चारोंही प्रकारके देवताका आयुष्य कैसे बांधे ? यह लेनेका है । यद्यपि यहां पर संयम और संयमासंयम लेकर श्रावक और साधुके लिये कहा है, किन्तु देशविरति और सर्वविरति सम्यक्त्व पूर्वक ही लेना ऐसा इधर नियम नहीं है। जैसे सम्यक्त्वसहित श्रावकपना या साधुपना धारण करनेवाला देवलोकका आयुष्य बांधनेका आश्रव करता है, वैसे ही सम्यक्त्वरहित
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