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गिनानेके लिये सूत्र करनेका था तो वहां परभी यथाक्रमं ऐसाही कहा गया है । नवमें अध्यायमें प्रायश्चित्तादिके भेदोंकी संख्या दिखानेके लिये “ नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमम्" ऐसा सूत्र करते समय भी आगे भेदोंका स्पष्टनिर्देश करनेका होनेसे 'यथाक्रम' कहा है । इससे यह बात निश्चित होती है कि जहांपर संख्यासे भेद दिखाकर विवेचनपूर्वक भेद दिखाना होता है वहांपर श्रीमान् आचार्यमहाराज 'यथाक्रम' शब्द रखते हैं। किन्तु यहांपर भावनाके लिये पंच पंच' कहकर 'यथाक्रम' नहीं कहा गया, इससे स्पष्ट होता है कि महाव्रतोंकी भावनाओंके सूत्र आचार्यश्रीके बनाये हुए नहीं हैं। आचार्यश्रीकी शैली तो ऐसी है कि जहांपर सिर्फ भेद ही की संख्या दिखानी हो
और भेदका विवेचन नहीं करना हो वहां पर 'यथाक्रम' नहीं कहते हैं । जैसा कि दूसरे अध्यायमें क्षायिकादिभेदों में दानादिलब्धि गतिकषायलिंगलेश्यादिककी संख्या दिखाई, किन्तु आगे विवेचन नहीं करना था तो वहां पर 'यथाक्रम' नहीं कहा। वैसेही छटे अध्यायमें भी आश्रवके बयानमें 'इन्द्रियकपायाव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदा:' इस सूत्रमें इन्द्रियादिकके भेदकी संख्या तो विषयमें दिखाई, किन्तु उनका विवेचन नहीं था तो वहां पर 'यथाक्रम' पद नहीं कहा । इन सब हेतुओंको देखते निश्चित होता है कि आगेके भावनाविषयक सूत्र आचार्यश्रीजीके बनाये हुए नहीं
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