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( ५० ) श्वेतांरियोंने जो असलसूत्र 'पीतान्तलेश्या ः ' ऐसा था वही मान्य रखा है, और वही उचित है ।
(७) चौथे अध्याय में श्वेतांबरोंने 'स्थितिः' ऐसा सूत्र देवताओं की स्थितिका अधिकारके लिये माना है, तो उधर दिगंबरोंनें उस अधिकार के सूत्रकों उडा दिया है. खूबी तो यह
कि पीछेका साराही अध्याय देवतादिकीही स्थितिको प्रतिपादन करता है, ऐसा तो दोनों संप्रदायवाले मानते हैं. विस परभी दिगंबर लोग इस अधिकारको मंजूर नहीं करते. व्याकरणआदि शास्त्रों में भी नियम है कि जहां पर बारबार अनुवृत्ति लाकर अर्थ करना पडे वहां पर अधिकारसूत्र करते हैं, तो फिर इधर साराही भाग स्थितिका होने पर इस अधिकारसूत्रकों दिगंबर लोग क्यों नहीं मानते हैं?, जिस प्रकार आगे के अध्यायोंमें अधिकारसूत्र है उसी प्रकार इधर भी लेना ठीक है, 'स आश्रवः' 'स बंध : ' सूत्रोंकी तरह स्थितिका अधिकारसूत्र मानना उचित है । अन्यथा सागरोपमे, अधिके, सप्त, त्रिराधिकानि तु०, एकैकेन०, अपरा०, पूर्वा पूर्वानन्तरा, इत्यादि सूत्रोंमें समन्वय करना नरा मुश्किल होगा, याने यह स्थितिकालही है, अन्तर या अविरहादिकका काल नहीं है, ऐसा कैसे होगा ?, और " नारकाणां ० व्यन्तराणां च ज्योतिष्काणां च, लोका० सर्वेषां " इन सूत्रोंमें अध्याहार करना भी मुश्किल होगा । अतः इन कारणोंकों सोचनेवाला मनुष्य तो “स्थितिः " इस अधिकारको
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