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श्वेताम्बरोंने कथंचित् माना है वह दिगम्बरोंने उड़ा दिया है । जब देवताके स्थितिलेश्यादिके विषयमें अधिकता और न्यूनता दिखानेवाले सूत्र मानलिये गये तो फिर खुद स्वरूप दिखानेका सूत्र क्यों उड़ा दिया गया ? यह विचारणीय है। .. [१२] पांचवें अध्यायमें श्वेतांबरलोग " द्रव्याणि जीवाश्च" ऐसा एकही सूत्र मानते हैं। किन्तु दिगम्बरी लोग "द्रव्याणि" और 'जीवाश्च' ऐसे दो सूत्र मानते हैं। श्वेतांबरियों का कहना है कि यदि धर्माधर्मादि अजीवको स्वतंत्र ही सूत्र करके द्रव्य तरीके गिनाया जाय तो 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुगला द्रव्याणि' ऐसा इकट्ठा ही सूत्र करना था, और जीवको भी पीछे ही कहना था, ताकि पांचोहीकी द्रव्यसंज्ञा होजाती । याने धर्मादि पांचको अजीवकाय दिखाकर बादमें उनके द्रव्यपनको दिखाते हुए जीवको साथमें लेकर पांचों हीका द्रव्यपन दिखाया है । इससे तीन सूत्र करनेकी कोई जरूरत ही नहीं रहती है, और जो दो सूत्र हैं वे ही उचित हैं। _____ पाठकों ! इकट्ठे मूत्रको अलग २ कर देना इसमें सूत्रकारकी बडीमें बडी आशातना करना है । क्योंकि कोई भी विद्वान् यदि उसे देखे तो वह फोरन कर्ताको ही गल्तीवाला मानेगा।
(१३) इसी अध्यायके 'असंख्येयाः प्रदेशा' इस सूत्रके स्थानमें दिगंबरलोग 'असंख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मैकजीवानां' ऐसा एकही सूत्र मानते हैं, किन्तु श्वेतांवरीलोग 'असंख्येयाः
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