Book Title: Tattvartha Kartutatnmat Nirnay
Author(s): Sagranandsuri
Publisher: Rushabhdev Kesarimal Jain Shwetambar Sanstha

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Page 18
________________ नहीं है। दिगम्बरलोग भी इन आचार्यको गृद्धपिच्छके शिष्य मानकर प्राचीनतम मंजूर करते हैं । इस विषयमें म्हेसाणा श्रेयस्करमंडलकी ओरसे श्वेताम्बरोंने छपवाये तत्त्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनासे और बंबइ परमश्रुतप्रभावकसंस्था तर्फसे छपवाये हुए तत्वार्थसूत्रसभाष्य भाषान्तर: की प्रस्तावनासे विद्वानों को विशेष जानकारी हो सकती है। .. ___ इस ग्रन्थकी उत्पत्तिके विषयमें श्वेताम्बरों की यह मान्यता है कि शास्त्रके विस्तारसे X उत्पत्ति । तत्त्वज्ञानमें जिनलोगों की रुचि कम हो, या * *जिनलोगोंको विस्तृत शाल जानने या सुननेका समय कम मिलता हो, या बडे शास्त्रोंमें प्रवेश करनेके पेश्तर सूक्ष्मतासे परिभाषा समझना हो वैसे जिज्ञासुओं एवं बालजीवोंके लाभार्थ श्रीमान्ने यह शास्त्र बनाया है । उधर दिगम्बरोंका कहना है कि किसी श्रावकको प्रतिदिन एक सूत्र बनानेका नियम था, अतः उसने पहिला सूत्र "दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग" ऐसा बनाकर उसे भींत (दीवाल ) पर लिखा। उसके घर गोचरीके लिये आये हुए उमास्वातिजीमहाराजने उस सूत्रको देखा । उसको देखकर श्रीमान्ने उस श्रावकसे कहा कि इस सूत्रके आदिमें सम्यक्शब्द और लगाना चाहिये, याने"सम्यम्-दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः,” इस प्रकार यह सूत्र होना चाहिये । तब श्रावकने नम्रता पूर्वक निवेदन किया . www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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