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लिये यह सूत्र कहा है तो यह कहना भी लाजिम नहीं हो सक्ता, क्योंकि तुम्हारे ही कथनसे तुमको मंजूर करना पड़ेगा कि तत्त्वार्थसूत्रकी रचनाके अव्वलसे ही श्वेतांबरोंका मजहब था, और उसको तत्त्वार्थकर्ताने खंडित किया, किन्तु ऐसा मानने परभी "नैकादश" ऐसा सूत्र बनाना लाजिम था. अन्य लोगों के हिसाबसे भी११ नहीं मानने पर भी इधर प्रकरण टूट जाता है, क्योंकि११ नहीं है तो कितने हैं यह तो दिखाया ही नहीं है. एक हो, दो हो, यावत् नव हो, या दस हो, तब भी ग्यारह नहीं हैं ऐसा ही कहा जायगा. यदि दश माने जाय तो क्षुधा छोडनी या पिपासा छोडनी उसका नियम नहीं रहेगा. दूसरी बात यह है कि इधर किसमें कितने परिषह है यह दिखानेका प्रकरण चला आता है, क्योंकि बादरसंपरायादिमें सभी परिषह होनेका हिसाब दिखाया है तो फिर इधर ग्यारह परिवह नहीं हैं ऐसा निषेध कहांसे आयगा ?
आगे कमें भी परिषहका अवतार करते शास्त्रकारने 'वेदनीये शेषाः' ऐसा कहकर क्षुधापरिषह और पिपासापरिषहका अवतार वेदनीयकम में दिखाया है, और आपके हिसाबसे. मी. जिनराजको वेदनीयकर्म नष्ट नहीं हुआ है, तो फिर वेदनीयमें गिना हुआ क्षुधा और पिपासाका परिषह क्यों न हो ? और जा क्षुधा और पिपासाका परिषह केवलीमहाराजको होना मंजूर करोगे तो फिर बिना आहार और जलपानके के परिषह
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