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(१९) पर्यवज्ञान भी निग्रंथत्वप्रतिपत्तिमें ही होवे याने बाह्यसंसर्गरहितपनेमें ही होवे, तो फिर यह अवधिज्ञानका फर्क केवल और मन:पर्यव दोनोंके ही साथ रहा, किन्तु स्वामीपनसे केवल मनःपर्यवके साथ नहीं. और यह बात सूत्रकारने दिखाई ही नहीं है । श्वेतांबरोंके हिसाबसेतोरजोहरणादि बाघलिंग या त्यागरूप बाधलिंग वालाही जीव मनापर्यवका मालिक होता है, किन्तु अवधि या केवलज्ञानका तो चाहे वह त्याग लिंगकाला हो या बिना लिंग का हो. दोनोही मालिक होसकते हैं. अतः इधर अवधि मनःपर्यावके फर्क में स्वामीशब्द लिया है, लेकिन आगे केवलमें नहिं याने अवधिसे मनःपर्यायका फर्क दिखाया लेकिन केवल का न दिखाया और इससे यह सूत्र श्वेतांबरसंप्रदायकाही है, लेकिन दिगम्बरसंप्रदायका नहीं है।
(२) चारनिकायके देवोंके भेद दिखाते समय ग्रंथकारमहाराजने स्पष्टरूपसे वैमानिकके भेदोंमें कल्पोपन्नतकके १२ भेद ही गिनायें हैं, याने "दशाष्टपंचद्वादशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यन्ताः" कहकर वैमानिकके १२ ही देवलोक दिखाये हैं, किन्तु दिगम्बरलोग कल्पोपपन्न १६ भेद मानते हैं. पाठकों ! यदि ग्रंथकार महाराज दिगम्बरमजहबके होते तो " दशाष्टपंचवोडशविकल्पाः कल्पोपपत्रपर्यन्ताः" इस प्रकार सूत्रकी रचना करते । किन्तु १६ भेद देवलोकके नहीं दिखाते सिर्फ १२ ही भेद दिखाये हैं, अतः निश्चय होता है कि यह सूत्र श्वेताम्बरआचार्यका ही बनाया हुआ है।
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