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१. सोमदेवसूरि - ये वही सोमदेवसूरि हैं, जिन्हें सोमसुन्दरसूरि ने दीक्षित किया था। ये मुनिसुन्दरसूरि, रत्नशेखरसूरि और उनके शिष्य एवं पट्टधर लक्ष्मीसागरसूरि के आज्ञानुवर्ती थे। सोमदेवसूरि के विभिन्न शिष्यों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
क - रत्नहंसगणि- इनके उपदेश से वि०सं० १५०९ में मालव देश के खाचरोद नगर में श्रावक कर्मसिंह ने शांतिनाथचरित की एक प्रतिलिपि करायी, जो छाणी, बड़ोदरा के एक ग्रन्थभंडार में संरक्षित है। २२
ख- रत्नमंडन- इनके द्वारा रचित सुकृतसागर नामक एक कृति प्राप्त होती है।
रत्नमंडन के एक शिष्य आगममंडन हुए। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती किन्तु इनके प्रशिष्य और हर्षकल्लोल के शिष्य लक्ष्मीकल्लोल द्वारा रचित कुछ कृतियाँ मिलती हैं। इन्होंने वि०सं० १५६६ में आचारांगसूत्र पर तत्त्वावगमा नामक अवचूरि" की रचना की। ज्ञाताधर्मकथा पर रची गयी मुग्धावबोध भी इन्हीं की कृति मानी जाती है।
जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है रत्नमंडन के दूसरे शिष्य सोमजय हुए। सोमजय के शिष्य जिनसोम हुए, जिन्हें लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा पाटण में उपाध्याय पद प्राप्त हुआ। जिनसो के शिष्य इन्द्रनंदि हुए जिनसे आगे चलकर तपागच्छ की कुतुबपुरा शाखा अस्तित्त्व में आयी। २. श्रुतमूर्ति - इनके द्वारा वि०सं० १५१७ कार्तिक वदि १० को स्तम्भतीर्थ लिखी गयी द्वात्रिंशिका की एक प्रति पाटण भंडार में संरक्षित है ऐसा मुनि चतुरविजय जी ने उल्लेख किया है।
३. जिनमाणिक्य - इनके शिष्य अनंतकीर्ति हुए जिनके द्वारा वि० सं० १५२९ में एक श्राविका के पठनार्थ शीलोपदेशमाला की प्रतिलिपि की गयी। मुनिश्री के अनुसार यह प्रति भी पाटण भंडार में संरक्षित है !
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४. सुमतिसाधु- ये लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर बने ।
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५. शुभसुन्दर - इनके द्वारा रचित देउलवाडामंडनऋषभजिनस्तवन सटीक नामक कृति मिलती है।
६. जयवीर - इनके शिष्य शुभलाभ ने वि०सं० १५३६ में उपदेशमालाअवचूरि की प्रतिलिपि की, जो आज पाटण के भंडार में संरक्षित है।
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७. शुभशीलगणि- इन्होंने वि० सं० १५२१ / ई० स० १४६५ में रचित पंचशतीप्रबन्ध नामक कृति प्राप्त होती है। इनके द्वारा रचित अन्य कृतियाँ भी मिलती हैं, जो इस प्रकार हैं: विक्रमादित्यचरित्र - रचनाकाल वि०सं० १४९९ ( अथवा १४९०) प्रकाशित
वि०सं० १४९६
पुण्यधननृपकथा प्रभावककथा
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वि०सं० १५०४
भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति (कथाकोश) वि०सं० १५०९ शत्रुंजयकल्पवृत्ति - वि० सं० १५१८
भोजप्रबन्ध -
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शालिवाहनचरित्र - वि०सं० १५४० पुण्यसारकथा
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