________________
तपागच्छ-लघुपौशाालिक शाखा अपरनाम हर्षकुलशाखा या सोमशाखा
तपागच्छ से समय-समय पर विभिन्न कारणों से विभिन्न शाखायें अस्तित्त्व में आयीं। लघु पौशालिक शाखा भी एक है। यह शाखा हर्षकुलशाखा और सोमशाखा के नाम से भी जानी जाती है। प्राप्त विवरणानुसार तपागच्छ के ५५ वें पट्टधर आचार्य हेमविमलसूरि ने अपने शिष्य आनन्दविमल को सूरि पद प्रदान कर अपना पट्टधर नियुक्त किया था। बाद में आनन्दविमलसूरि द्वारा एक अल्पवयस्क बालिका को दीक्षा देने के कारण गुरु-शिष्य में परस्पर मतभेद हो गया जो आगे चलकर बढ़ता ही गया, तब हेमविमलसूरि ने अपनी मृत्यु से पूर्व सौभाग्यहर्ष को अपना पट्टधर नियुक्त किया, जिनकी परम्परा लघु पौशालिक शाखा के नाम से विख्यात हुई। इस शाखा का उक्त नामकरण क्यों हुआ, इस सम्बन्ध में आज हमें कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये कुछ ग्रन्थ प्रशस्तियां, पुस्तक प्रशस्तियां तथा एक पट्टावली और सीमित संख्या में अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं जिनके आधार पर इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत करने का यहां प्रयास किया जा रहा है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इस शाखा की एक पट्टावली भी मिलती है जो विक्रम सम्वत् की १९वीं शती के अंतिम चरण में संकलित गयी प्रतीत होती है। इसमें आचार्य हेमविमलसूरि के पट्टधर एवं इस शाखा के आदिपुरुष सौभाग्यहर्षसूरि से लेकर अंतिम पट्टधर रायचन्द्रजी तक हुए प्रत्येक पट्टधर आचार्यों का न्यूनाधिक विवरण प्राप्त होता है, जिसे एक तालिका के रूप में निम्न प्रकार से रखा जा सकता है :
तालिका - क्रमांक- १
आनन्दविमलसूरि
....... तपागच्छ मूल परम्परा जारी ........
Jain Education International
हेमविमलसूरि (तपागच्छ के ५५ वें पट्टधर; वि०सं० १५८३ में स्वर्गस्थ
सौभाग्यहर्षसूरि (वि० सं० १५८३ में गुरु वि०सं० १५९७ में स्वर्गस्थ )
I
सोमविमलसूरि (वि० सं० १५९७ में आचार्य पद
1
हेमसोमसूरि (वि०सं० १६३६ में
प्राप्त; वि० सं० १६३६ में स्वर्गस्थ ) गुरु के पट्टधर; वि०सं० १६७९ में स्वर्गस्थ )
1
विमलसोमसूरि ( वि० सं० १६६७ में आचार्यपद प्राप्त, वि०सं० १६८८ मार्गशीर्ष सुदि १५
1 को स्वर्गस्थ )
विशालसोमसूर
|
For Private & Personal Use Only
पट्टधर;
www.jainelibrary.org