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मानविजय (रचनाकार) वि०सं० १७३२/ई०स० १६७६ में लिखी गयी सुबोधिकावृत्ति की प्रशस्ति१८ में प्रतिलिपिकार ने स्वयं को विजयाणंदसूरि का प्रशिष्य और विजयगणि का शिष्य कहा है।
विजयाणंदसूरि
विजयगणि
गुणविजय (वि० सं० १७३२/ई०स० १६७६ में सुबोधिका वृत्ति
के प्रतिलिपिकार) वि०सं० १६८३ फाल्गुन वदि ४ के तीन प्रतिमालेखों ९ तथा वि० सं० १६९१ के एक प्रतिमालेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में विजयाणंदसूरि का नाम मिलता है। इसी प्रकार वि०सं० १६९८ के तीन लेखों२१ में इनके शिष्य मानविजय और प्रशिष्य अमृतविजय का नाम मिलता है। वि० सं० १६९८ के ही दो अन्य लेखों२२ में केवल अमृतविजय और उनके प्रगुरु विजयाणंदसूरि का नाम मिलता है।
प्रसिद्ध श्रावक कवि ऋषभदास ने स्वरचित नवतत्त्वरास (वि० सं० १६७६), हीरविजयसूरिनोबारहबोलनोरास (वि०सं० १६८४), मल्लिनाथरास (वि०सं० १६८५) आदि की प्रशस्तियों में उन्हें विजयाणंदसूरि के काल में रचा बताया है।२३ यही बात वि०सं० १६७९ में संघविजय द्वारा रचित अमरसेनवयरसेनराजर्षिआख्यान की प्रशस्ति४, वि०सं० १६७८ में कीर्तिविजय द्वारा प्रतिलिपित सामाचारी की प्रशस्ति२५, वि०सं० १६८८ में अमृतविजय द्वारा प्रतिलिपित विचारसारप्रकीर्णक की प्रशस्ति२६ और उनके शिष्य मुक्तिविजय द्वारा लिखित वि०सं० १६९४ की प्राकृतनाममाला की प्रशस्ति में भी कही गयी है।
वि०सं० १६९७-१७३५ के मध्य भावविजय द्वारा रचित विभिन्न कृतियों की प्रशस्तियों में विजयतिलकसूरि और उनके पट्टधर विजयाणंदसूरि का सादर उल्लेख मिलता है२८ जिससे स्पष्ट होता है कि ये उनके आज्ञानुवर्ती रहे होंगे। विजयराजसूरि-वि०सं० १७११ में विजयाणंदसूरि के निधन के उपरान्त इन्होंने तपागच्छ की इस शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। इनके द्वारा भी रचित कोई कृति नहीं मिलती है। वि०सं० १७०६ से वि० सं० १७२१ तक के प्रतिमालेखों में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में इनका नाम मिलता है। इनका विवरण निम्नानुसार है : क्रमांक वि०सं० तिथि/मिति
प्राप्तिस्थान
संदर्भग्रन्थ १. १७०६ ज्येष्ठ सुदि १३ रविवार कुन्थुनाथ जिनालय, बुद्धिसागर, संपा०,
मांडवीपोल, खंभात जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह,
भाग २, लेखांक ६४८. २. १७०६ ज्येष्ठ......गुरुवार नेमिनाथ जिनालय, पूरनचन्दनाहर, संपा०,
मुर्शिदाबाद
जैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १०१४.
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