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वि०सं० १६७३ में इन्हें सिरोही में आचार्यपद प्राप्त हुआ और वि०सं० १६७६ में इनका निधन हुआ। यह सूचना वीरवंशावली से ज्ञात होती है।
आचार्य हीरविजयसूरि की परम्परा में हुए दर्शनविजय द्वारा रचित विजयतिलकसूरिनिर्वाणरास (रचनाकाल वि०सं० १६९७) से भी इनके बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। वि०सं० १६७४ में जीवविजय द्वारा लिखित शांतिनाथस्तवन', वि०सं० १६७४ में ही संघविजयगणि के शिष्य वृद्धिविजय द्वारा लिखी गयी श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति, वि०सं० १६७५ में देवविजय के शिष्य मानविजय द्वारा लिखित सप्तपदार्थी और वि०सं० १६७५ चैत्र सुदि २ को लिखी गयी मृगावतीआख्यान की प्रति में विजयतिलकसरि का सादर उल्लेख करते हुए उक्त ग्रन्थों की प्रतिलिपियों को उनके काल में लिखा बतलाया गया है।
आदिनाथ जिनालय, सिरोही में प्रतिष्ठापित हीरविजयसूरि की प्रतिमा पर वि०सं० १६७१ का एक लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य के रूप में विजयसेनसूरि के शिष्य विजयतिलकसूरि का नाम मिलता है। मुनि जयन्तविजयजी१२ ने इस लेख की वाचना दी है, जो निम्नानुसार है :
सं० १६७१ वर्षे वै० शु० ३ बुधे भट्टा० श्रीहीरविजयसूरिमूर्तिः प्राग्वाटज्ञातीय सा पुजा भा०वा० उछरगदेनाम्न्या स्वसुत तेजपाल तत्सुत सा० वस्तुपाल वर्धमान प्रमुख श्रेयोर्थं कारित (ता) प्रति: तपागच्छे भ० श्रीविजयसेनसूरि पट्टधारि श्रीविजयतिलकसूरिभिः श्रीरस्तु संघस्य।।
यदि मुनिश्री की उक्त वाचना सही माना जाये तो वीरवंशावली द्वारा दी गयी विजयतिलकसूरि को आचार्यपद प्राप्ति की उक्त तिथि (वि०सं० १६७३) की प्रामाणिकता संदिग्ध हो जाती है।
वसन्तगढ़ के एक जिनालय में एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण वि०सं० १६७५ का एक लेख मुनि जयन्तविजयजी'३ को प्राप्त हुआ है। उन्होंने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है :
ॐ॥संवत् १६७५ वर्षे तपागच्छभट्टारकपुरंदर भट्टारक श्रीश्रीश्री श्रीश्रीश्रीश्रीविजयतिलकसूरिविजय (यिनि) राज्यमाने महोपाध्याय श्री ५ श्रीसोमविजयगणि शिष्यपंडितश्री ३ अमृतविजयगणि नेमविजय मु० कनकविजय चवरडिया नगरे चोमासुं रहीया श्रीश्रीशांतिनाथ रा कृता।।
उक्त लेख में उल्लिखित मुनिजन आचार्य विजयतिलकसूरि के आज्ञानुवर्ती माने जा सकते हैं। विजयाणंदसूरि-विजयतिलकसूरि के निधन के पश्चात् ये उनके पट्टधर बने। इन्हीं के नाम पर तपागच्छ की इस शाखा का नामकरण विजयाणंदसूरिशाखा या आणंदसूरिशाखा हुआ प्रतीत होता है। उपा० मेघविजय के प्रशिष्य और लब्धिविजय के शिष्य भाणविजय (भानुविजय) द्वारा रचित विजयाणंदसूरिनिर्वाणसज्झाय (रचनाकाल वि०सं०१७११) से इनके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। विजयाणंदसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है किन्तु इनकी परम्परा के मुनिजनों द्वारा
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