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तपागच्छ-विजयाणंदसूरि शाखा
तपागच्छ की विभिन्न शाखाओं में विजयानन्दसूरिशाखा अपरनाम आनन्दसूरिशाखा भी एक है । तपागच्छीय आचार्य विजयसेनसूरि के शिष्य रामविजय (बाद में विजयतिलकसूरि) इस शाखा के आदिम आचार्य माने जाते हैं। विजयतिलकसूरि के पट्टधर विजयाणंदसूरि हुए जिनकी शिष्यसंतति उनके नाम के आधार पर विजयाणंदसूरिशाखा या आणंदसूरिशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा में विजयराजसूरि, विजयमानसूरि, विजयऋद्धिसूरि, विजयसौभाग्यसूरि, विजयलक्ष्मीसूरि आदि कई आचार्य हुए हैं।
विजयानंद सूरिशाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इससे सम्बद्ध मुनिजनों की अल्पसंख्या में प्राप्त रचनाओं की प्रशस्तियों तथा उनके समय में लिखी गयी विभिन्न रचनाओं की प्रतिलिपिप्रशस्तियों से पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। इसी प्रकार वीरवंशावली' ( रचनाकाल वि०सं० १९वीं शती का प्रारम्भ) और दीपविजय द्वारा रचित सोहमकुलपट्टावलीसज्झाय (रचनाकाल वि०सं० १८७७) से इस शाखा के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। संभवतः उक्त दोनों साक्ष्यों के आधार पर ही श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और मुनिश्री कल्याणविजयगणि' ने इस शाखा के पट्टधर आचार्यों की एक नामावली प्रस्तुत की है। इस शाखा से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं जो वि०सं० १६७१ से लेकर वि०सं० १८६८ तक के हैं। यहाँ उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत है ।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है वीरवंशावली और सोहमकुलपट्टावलीसज्झाय के अनुसार आचार्य विजयसेनसूरि ने अपने शिष्य विजयदेवसूरि को अपना पट्टधर नियुक्त किया था। इस समय आचार्य हीरविजयसूरि का शिष्य समुदाय - सागर और विजय- इन दो समुदायों में बंटा हुआ था। आचार्य विजयदेवसूरि का झुकाव सागरों की ओर देखकर उनके गुरु विजयसेनसूरि अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उन्होंने रामविजय नामक एक विद्वान् मुनि को आचार्य पद देकर विजयतिलकसूरि नाम रखा। इस प्रकार हीरविजयसूरि की शिष्यसंतति जो विजयसेनसूरि के समय तक प्रायः अखंड रूप से रही, अब औपचारिक रूप से दो भागों में विभाजित हो गयी। विजयदेवसूरि की शिष्य संतति से तपागच्छ की मूलपरम्परा आगे चली तथा विजयतिलकसूरि की शिष्यसंतति आगे चलकर विजयाणंदसूरिशाखा अपरनाम आणंदसूरिशाखा के नाम से जानी गयी।
श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और मुनि कल्याणविजयगणि ने इस शाखा के मुनिजनों की जो नामावली दी है, वह इस प्रकार है :
आचार्य विजयसेनसूरि
आचार्य विजयतिलकसूरि (वि०सं० १६५१ में जन्म; वि०सं० १६६२ में दीक्षा; वि०सं० १६७३ में आचार्य पद; वि०सं० १६७६ में मृत्यु)
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