________________
नामक कृतियां मिलती हैं।३४अ वि० सं० १७४२ के बाद विजयराजसूरि का निधन हुआ।
विजयराजसूरि के एक अन्य शिष्य दानविजय द्वारा वि० सं० १७५० में कल्पसूत्र पर रची गयी दानदीपिका नामक कृति प्राप्त होती है ऐसा मुनि कांतिसागर जी ने उल्लेख किया
विजयराजसूरि
ऋद्धिविजय (वि० सं० १७०३ में वरदत्तगुणमंजरीरास एवं वि०सं० १७१६ में रोहिणीरास के कर्ता)
दानविजय (वि०सं० १७५० में कल्पसूत्र-दानदीपिका के कर्ता)
विजयमानसूरि-वि०सं० १७४२ में विजयराजसूरि के निधन के पश्चात् विजयमानसूरि ने इस शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। इनके द्वारा भी रचित कोई कृति नहीं मिलती है। वि०सं० १७७० में इनका देहान्त हुआ। वि०सं० १७५१ में कल्पसूत्रस्तवक३६ और वि०सं० १७५७ में संग्रहणीसूत्र के प्रतिलिपिकार महिमाविजय ने स्वयं को विजयमानसूरि का शिष्य बतलाया है। वि०सं० १७७६ के आस-पास इनके शिष्य आनन्दविजय ने क्षेत्रसमास पर बालावबोध की रचना की।३८ वि०सं० १७९५ में भाष्यत्रय के प्रतिलिपिकार पं० माणिक्यविजय ने स्वयं को पं० हर्षविजय का शिष्य और विजयमानसूरि का प्रशिष्य कहा है:
विजयमानसूरि
पं० हर्षविजय
महिमाविजय (वि० सं० १७५१ में कल्पसूत्रस्तवक और वि०सं० १७५७ में संग्रहणीसूत्र के प्रतिलिपिकार)
आनन्दविजय (वि०सं०१७७६ के आसपास क्षेत्रसमासबालावबोध के रचनाकार)
पं० माणिक्यविजय (वि०सं० १७९५ में भाष्यत्रय के प्रतिलिपिकार)
विजयऋद्धिसूरि-वि०सं० १७७० में विजयमानसूरि के निधन के पश्चात् विजयऋद्धिसरि उनके पट्टधर बने। सोहमकुलपट्टावली में इनके मृत्यु की तिथि वि०सं० १७९७ दी गयी है।३९ वि०सं० १७९५ में इनके द्वारा अपने गुरु की चरणपादुका स्थापित करने का उल्लेख मिलता है। मुनि जयन्तविजयजी ने इस लेख की वाचना निम्नानुसार दी है :
___ सं० १७९५ भ० हीरविजयसूरि भ० विजयसेनसूरि भ० विजयतिलकसूरि भ० विजयाणंदसूरि भ० विजयराजभूरि भ० विजयमानसूरीणां पादुका प्रतिष्ठिता श्रीविजयऋद्धिसूरिभिः
इसी प्रकार वि० सं० १७९८ वैशाख सुदि १ सोमवार के एक प्रतिमालेख, २ .
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org