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३०४ मुनि कल्याणविजय जी ने जयरत्नसूरि के पट्टधर के रूप में हेमरत्नसूरि का नाम दिया है, जबकि प्रशस्तियों में जयरत्नसूरि के पट्टधर के रूप में भावरत्नसूरि का ही नाम मिलता है। मुनिश्री के उक्त कथन का क्या आधार है? यह ज्ञात नहीं होता।
रत्नशाखा के आदिपुरुष राजविजयसूरि और उनके पट्टधर रत्नविजयसूरि तथा रत्नविजयसूरि के पट्टधर हीररत्नसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति मिलती है और न ही इस सम्बन्ध में कोई उल्लेख ही प्राप्त होता है। ठीक यही बात इस शाखा के अन्य पट्टधरों के बारे में भी कही जा सकती है। किन्तु इस शाखा के विभिन्न रचनाकारों व प्रतिलिपिकार मुनिजनों ने अपनी कृतियों और प्रतिलिपियों की प्रशस्तियों में अपने पूर्वजों का सादर उल्लेख किया है।
वि० सं० १६९३/ई०स० १६३७ में लिखी गयी प्रेमलासतीरास की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार मानविमल ने अपने गुरु जसविमल और प्रगुरु हीररत्नसूरि का सादर उल्लेख किया है :
हीररत्नसूरि
जसविमल
मानविमल (वि० सं० १६९३/ई०स० १६३७ में प्रेमलासतीरास
के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १६९६/ई०स० १६४० में रची गयी नेमिजिनरास अपरनाम वसंतविलास की प्रशस्ति में रचनाकार हर्षरत्न ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
हीररत्नसूरि
लब्धिरत्न
सिद्धिरत्न
हर्षरत्न (वि० सं० १६९६/ई० स० १६४० में नेमिजिनरास
अपरनाम वसंतविलास के रचनाकार) वि०सं० १७१४/ई०स० १६५८ में लिखीगयी कल्याणमंदिरस्तोत्र की प्रतिलेखन प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार देवरत्न ने स्वयं को हीररत्नसूरि की परम्परा को बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा इस प्रकार दी है :
हीररत्नसूरि
पं० लब्धिरत्नगणि
शुभरत्न
राजरत्न
देवरत्न (वि० सं०१७१४/ई०स० १६५८ में कल्याणमंदिर-स्तोत्र के रचनाकार)
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