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तपागच्छ-राजविजयसूरिशाखा अपरनाम
रत्नशाखा
__तपागच्छ की नामशेष शाखाओं में राजविजयसूरि शाखा अपरनाम रत्नशाखा भी एक है। विजयराजसूरि इस शाखा के आदिपुरुष कहे जा सकते हैं और उनके शिष्य एवं पट्टधर रत्नविजय से यह शाखा रत्नशाखा के नाम से भी विख्यात् हुई।
राजविजयसूरि - पट्टावलीगतविवरणानुसार वि०सं० १५६४ में इनका जन्म हुआ था। इनके पिता का नाम देवदत्त और माता का नाम देवलदेवी था। इनका बचपन का नाम रामकुमार था। वि० सं० १५७१ में इन्होंने उपकेशगच्छ में दीक्षा ली और वि०सं० १५८४ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होकर उपकेशगच्छ की परम्परानुसार देवगुप्तसूरि के पट्टधर के रूप में कक्कसूरि नाम प्राप्त किया।
इनकी परम्परा में हुए उदयरत्न नामक सुप्रसिद्ध रचनाकार द्वारा रचित भावरत्नसूरिप्रमुखपांचपाटवर्णनगच्छपरम्परारास के अनुसार इन्होंने महमूद नामक शासक की बीबी का सर्पदंश दूरकर उसे स्वस्थ किया था। इसके अलावा इन्होंने अनेक चमत्कारों से उसे प्रभावित किया जिससे प्रसन्न होकर उसने इन्हें राजवल्लभसूरि नाम दिया। वि०सं० १६१३ में इन्होंने क्रियोद्धार कर के सम्पूर्ण परिग्रह त्याग दिया और वि०सं० १६१५ में तपागच्छीय आचार्य आनन्दविमलसूरि के पास योगोद्वहन कर राजविजयसूरि नाम प्राप्त किया। उस समय यह भी निश्चित हुआ कि आनन्दविमलसूरि के पट्टधर विजयदानसूरि होंगे तथा राजविजयसूरि युवराज पद पर रहेंगे और समय आने पर विजयदानसूरि के पट्टधर होगें। आनन्दविमलसूरि के निधन के बाद विजयदानसूरि उनके पट्टधर हुए किन्तु उन्होंने बाद में एक बालक को दीक्षित कर हीरहर्ष नाम दिया और उसे अपना पट्टधर घोषित कर दिया। यही हीरहर्ष बाद में आचार्य पद पर हीरविजयसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए और राजविजयसूरि ने उनसे अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। वि०सं० १६२४ में झींझुवाड़ा में इनका निधन हुआ। तत्पश्चात् इनके शिष्य रत्नविजय को तपागच्छ-कमलकलशशाखा के आचार्य लक्ष्मीरत्नसूरि ने सूरि पद प्रदान कर राजविजयजी का पट्टधर घोषित किया। इसी समय निश्चित किये गये शर्त के अनुसार इस शाखा के सभी मुनिजनों के रत्लान्त नाम रखे जाने लगे और इसका एक नाम रत्नशाखा भी प्रचलित हो गया। रत्नविजयसूरि के पश्चात् इस शाखा में हीररत्नसूरि, जयरत्नसूरि, भावरत्नसूरि, दानरत्नसूरि, मुक्तिरत्नसूरि आदि कई प्रभावशाली आचार्य हो चुके हैं। सुप्रसिद्ध रचनाकार उदयरत्न, हंसरत्न, हर्षरत्न आदि भी तपागच्छ की इसी शाखा से सम्बद्ध थे। इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों द्वारा बड़ी संख्या में अनेक रचनाओं की प्रतिलिपियां तैयार की गयीं, जिनकी प्रशस्तियों में इस शाखा के विभिन्न मुनिजनों का उल्लेख मिलता है जो इस शाखा के इतिहास के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इस शाखा की एक पट्टावली भी मिलती है, जो विक्रम सम्वत् की २०वीं शती में रची गयी प्रतीत होती
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