Book Title: Tapagaccha ka Itihas
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 333
________________ I Jain Education International ३०७ भावरत्नसूरि (वि०सं० १७३४-१७७२) मानरत्न (वि० सं० १७५१ / ई०स० १६९५ में अरहन्त्रकरास के प्रतिलिपिकार) मुनि मानरत्न द्वारा वि०सं० १७५४ में लिखी गयी रत्नसंचय" और वि०सं० १७५८ में लिखित दशवैकालिकबालावबोध" की प्रतियां भी प्राप्त हुई हैं। विक्रम सम्वत् की १८वीं शताब्दी के मध्य में इस शाखा में हंसरत्न नामक एक रचनाकार हुए हैं। उनके द्वारा रचित कुछ कृतियां मिलती हैं जो इस प्रकार हैं : चौबीसी वि०सं० १७५५ / ई० स० १६९९ वि०सं० १७८६ / ई०स० १. २. शिक्षाशतदूहा १७३० ३. अध्यात्मकल्पद्रुमबा लावबोध ४. शत्रुंजयमहात्म्य श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इनकी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है: ३ राजविजयसूरि 1 हीररत्नसूर 1 लब्धिरत्न | राजरत्न I लक्ष्मीरत्न I ज्ञानरत्न 1 हंसरत्न (रचनाकार) १४ वि०सं० १७६० / ई०स० १७०४ में लिखी गयी चन्द्रमुनिरास की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उक्त प्रति आचार्य भावरत्नसूरि के काल में लिखी गयी थी और इसके प्रतिलिपिकार के रूप में नयरत्न का नाम मिलता है। नयरत्न कौन थे, इस बारे में उक्त प्रशस्ति से कोई जानकारी नहीं मिलती, तथापि उनके रत्नान्त नाम होने तथा उनके द्वारा रत्नसूरि का सादर उल्लेख करने से उन्हें भावरत्नसूरि का शिष्य मानने में कोई बाधा नहीं है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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