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श्री देसाई ने उक्त प्रति की प्रशस्ति के आधार पर जयरत्न की गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है : कीर्तिरत्नसूरि > मयारत्न > सौभाग्यरत्न > राजेन्द्ररत्न > गुणरत्न -> मानरत्न -> जयरत्न (वि०सं० १९१२/ई०स० १८५६ में इनके पठनार्थ
चन्द्रराजारास की प्रतिलिपि की गयी।) उक्त प्रशस्ति को इस शाखा से सम्बद्ध अंतिम साक्ष्य माना जा सकता है।
विभिन्न प्रशस्तियों के आधार पर संकलित उक्त छोटी-छोटी गुर्वावलियों के समायोजन से इस शाखा की पट्टावली को जो नवीन स्वरूप प्राप्त होता है, वह इस प्रकार है :
द्रष्टव्य-तालिका-१-२.
जैसा कि हम इस शाखा के प्रारम्भिक पृष्ठों में ही देख चुके हैं मुक्तिरत्नसूरि के पश्चात् इस शाखा में क्रमश: पुण्योदयरत्नसूरि, अमृतरत्नसूरि, चन्द्रोदयरत्नसूरि, सुमतिरत्नसूरि और भाग्यरत्नसूरि पट्टधर बने, परन्तु इनमें से किसी का भी उक्त पट्टावली को छोड़ कर अन्यत्र कोई उल्लेख नहीं मिलता है। किसी रचनाकार या प्रतिलिपिकार मुनि द्वारा अपनी रचनाओं या प्रतिलिपि की प्रशस्तियों में तत्कालीन गच्छनायक या शाखाप्रमुख का उल्लेख न करना निश्चय ही गच्छनायक के महत्त्वहीन होने का द्योतक है और गच्छनायक का महत्त्वहीन होना उस गच्छ या शाखा के महत्त्वहीन होने का परिचायक है। ठीक यही बात राजविजयसूरिशाखा के अंतिम पांच आचार्यों के बारे में भी कही जा सकती है। वर्तमान में इस शाखा का अस्तित्त्व केवल इतिहास के पृष्ठों तक ही सीमित है।
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