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तपागच्छ-विमलशाखा
तपागच्छ से उद्भूत विभिन्न शाखाओं में विमलशाखा भी एक है। तपागच्छ के ५६वें पट्टधर आचार्य आनन्दविमलसूरि के शिष्य हर्षविमल की परम्परा में हुए धीरविमलगणि के शिष्य नयविमल (ज्ञानविमलसूरि) से यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। इस शाखा में ज्ञानविमलसूरि के पश्चात् क्रमशः सौभाग्यसागरसूरि, सुमतिसागरसूरि, विबुधविमलसूरि और महिमाविमलसूरि हए।
विमलशाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये स्रोत के रूप में इस शाखा के आदिपुरुष ज्ञानविमलसूरि द्वारा रचित विभिन्न कृतियों की प्रशस्तियां अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।' इसी प्रकार इस शाखा के चतुर्थ पट्टधर विबुधविमलसूरि की कृतियों की प्रशस्तियां भी उक्त दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। ज्ञानविमलसूरिरास और विबुधविमलसूरिरास से भी उक्त दोनों आचार्यों के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण विवरण प्राप्त होते हैं। इसके अलावा इस गच्छ की एक पट्टावली" भी मिली है, जिसका सार श्रीमोहनलाल दलीचंद देसाई ने गुजराती भाषा में प्रस्तुत किया है। इस शाखा से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी मिले हैं जो वि० सं० १७५१ से लेकर वि०सं० १८४८ तक के हैं। यहाँ सभी साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, इस शाखा की एक पट्टावली प्राप्त हुई है, जिसका सार श्री देसाई ने प्रस्तुत किया है। इसे तालिका के रूप में निम्न प्रकार से रखा जा सकता है :
विजयप्रभसूरि (तपागच्छ के ६१वें पट्टधर)
ज्ञानविमलसूरि (वि०सं० १६९४ में जन्म; वि०सं० १७०२ में दीक्षा, । वि०सं० १७२७ में पंन्यासपद; वि०सं० १८४८-४९
में आचार्यपद; वि०सं० १७८२ में निधन) सौभाग्यसागरसूरि
सुमतिसागरसूरि
विबुधविमलसूरि (वि० सं० १७९८ में सूरिपद; वि०सं०१८१४ में
। स्वर्गस्थ) महिमाविमलसूरि (वि० सं० १८१३ में सूरिपद प्राप्त; वि०सं० १८२०
में इनके काल में विबुधविमलसूरिरास की रचना हुई) ज्ञानविमलसूरि अपने युग के श्रेष्ठतम रचनाकारों में से एक थे। इनके द्वारा संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषा में रची गयी अनेक कृतियां मिलती हैं जिनमें से कुछ निम्नानुसार हैं: १. नरभवदृष्टान्तोपनयमाला २. साधुवंदनारास
वि०सं० १७२८ जम्बूस्वामिरास
वि० सं० १७३७
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