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राजविजयसूरिशाखा के आचार्य दानरत्नसूरि (वि० सं० १७७२- १८२४) और वि० सं० १८०७/ई०स० १७५१ में लिखी गयी श्रीपालरास के प्रतिलिपिकार दानसागरसूरि निश्चय ही एक ही व्यक्ति हैं। इन्हीं के काल में वि०सं० १८१४ में मोहनरत्न ने आगमसार की प्रतिलिपि की।२१ उक्त मोहनरत्न संभवत: इनके शिष्य रहे होंगे।
वि० सं० १८४९/ई० स० १७८३ में अज्ञात रचनाकार कृत धन्नाचरितबालावबोध के प्रतिलिपिकार हर्षरत्न भी इसी शाखा के थे। श्री देसाई ने इनकी गुरु-परम्परा निम्नानुसार दी है२२ :
भावरत्नसूरि
महो०पं० शांतिरत्न
पं० हस्तिरत्न
पं० कनकरत्न
पं० बुद्धिरत्न
पं० धर्मरत्न
पं० हर्षरत्न (प्रतिलिपिकार) दानरत्नसूरि (वि०सं० १७७२-१८२४) के पश्चात् कीर्तिरत्नसूरि ने इस शाखा का नेतृत्त्व संभाला। वि०सं० १८५.०/ई०स० १७९४ में लिखी गयी मानतुंगमानवतीनोरास नामक कृति के प्रतिलिपिकार मयारत्न ने स्वयं को कीर्तिरत्नसूरि का शिष्य बतलाया है२३:
कीर्तिरत्नसूरि
मयारत्न (वि०सं० १८५०/ई०स० १७९४ में मानतुंगमान
वतीरास के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १८५२/ई०स० १७९६ में पूर्वोक्त हर्षरत्न ने ढालमंजरी की प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने लम्बी गुर्वावली दी है, जिसे श्री देसाई ने उद्धृत किया है२४
वि० सं० १८५२/ई०स० १७९६ में उत्तमकुमारनोरास के रचनाकार पं० राजरत्न भी इसी शाखा के थे। इसकी प्रशस्ति२५ में उन्होंने अपनी गुर्वावली दी है, जो निम्नानुसार है:
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