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पुत्रेण सुत सा पनजी प्रमुख कुटुंबयुतेन श्रीशत्रुंजयादितीर्थमहामह० पुरस्त रथयात्रासमवाप्तसंघपतितिलकेन सा० श्रीशांतिदासनाम्ना स्वश्रेयोर्थं श्री शीतलनाथबिंबं स्वयं कारितं प्रतिष्ठितं च तपागच्छे भट्टारक श्रीविजयसेनसूरिपट्टालंकारभट्टारक श्रीविजयदेवसूरिपरिवारके महोपाध्याय श्रीविवेकहर्षगणिनामनुशिष्य महोपाध्याय श्रीमुक्तिसागरगणिभिः || शीतलनाथ की धातु की प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, प्रतिष्ठास्थान लोढण पार्श्वनाथ देरासर, डभोई
संदर्भग्रन्थ -
संवत् १६८२ वर्षे ज्येष्ठ वदि ९ गुरौ श्रीअहमदाबाद वास्तव्य उसवालज्ञातीय वृद्धशाखा (खा) यां श्रीशांतिदास भा० वाई रूपाई सुत सा० पनजी कारितं श्रीशांतिनाथबिंबं प्रतिष्ठितं श्री तपागच्छे भ० श्रीविजयदेवसूरि वरैकि (?) महोपाध्याय श्री श्री श्री मुनिसागर (मुक्तिसागर ) गणिभिः श्रेयोस्तु ||
शांतिनाथ की चौबीसी प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख, प्रतिष्ठास्थान - शांतिनाथ जिनालय, सहादतगंज, लखनऊ
संदर्भग्रन्थ - पूरनचन्द नाहर, संपा०, जैनलेखसंग्रह, भाग २, लेखांक १६३५. वि०सं० १६८२ ज्येष्ठ वदि ९ गुरुवार के उक्त चारों प्रतिमालेखों में समान रूप से मुक्तिसागरगणि और शांतिदास का नाम मिलता है। एक ही समय उत्कीर्ण कराये जाने के कारण इनमें स्वाभाविक रूप से भाषागत समानता भी दृष्टिगोचर होती है । यही भाषागत समानता हमें वि० सं० १६८१ ज्येष्ठ वदि ९ गुरुवार के लेख में भी दिखाई देती है, साथ ही इसमें भी मुक्तिसागरगणि और शांतिदास का नाम मिलता है, इस आधार पर इस लेख को भी वि० सं० १६८२ का ही मानने में कोई बाधा नहीं दिखाई देती। दूसरे वर्ष सम्वत् १६८१ के ज्येष्ठ माह के कृष्णपक्ष की नवमी की तिथि को भी गुरुवार ही रहा होगा, जैसा कि वर्ष १६८२ के ज्येष्ठ माह के कृष्णपक्ष की नवमी की तिथि को रहा, ऐसा होना संभव नहीं लगता । सागरशाखा की पूर्वोक्त पट्टावली में मुक्तिसागरगणि को लब्धिसागर का शिष्य और उपा० धर्मसागरगणि का प्रशिष्य कहा गया है वहीं उक्त अभिलेखीय साक्ष्यों में हम मुक्तिसागरगणि को विवेकहर्षगण के शिष्य के रूप में पाते हैं, अतः यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि दोनों मुक्तिसागर एक ही व्यक्ति हैं या अलग-अलग। इसका उत्तर यही है कि चूंकि शांतिदास द्वारा निर्मित जिनालय की प्रतिष्ठा का कार्य वि०सं० १६८२ में तपागच्छ की भट्टारक शाखा के आचार्य विजयदेवसूरि की परम्परा के विवेकहर्षगणि के निर्देशन में मुक्तिसागरगणि ने सम्पन्न किया था, अतः यही कारण है कि इस समय के प्रतिमालेखों में इन्हें विवेकहर्षगणि का शिष्य कहा गया है। इस प्रकार लब्धिसागर के शिष्य मुक्तिसागरगणि उक्त प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित मुक्तिसागरगणि से अभिन्न सिद्ध होते हैं।
बुद्धिसागरसूरि, संपा०, जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह, भाग १, लेखांक ३६.
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श्रेष्ठी शांतिदास के प्रयत्न से वि०सं० १६८६ में मुक्तिसागरगणि को आचार्य पद प्राप्त हुआ और वे राजसागरसूरि के नाम से जाने गये ।" वि०सं० १६९८ पौष पूर्णिमा को इन्होंने वृद्धिसागर को आचार्यपद प्रदान कर अपना पट्टधर नियुक्त किया। अपने जीवन काल राजसागरसूरि ने बिम्बप्रतिष्ठा, पंडित तथा वाचकपद प्रदान, उपधान, मालारोपण आदि
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